Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नोटबंदी से लेकर आर्थिक मंदी तक का सफर

 

2016 में 08 नवंबर को 500 एवं 1000 रूपए के चलन में आने वाले नोट बंद कर दिए गए थे। केंद्र की मोदी सरकार के इस फैसले से देश भर में हड़कंप मच गया था। यद्यपि भाजपा के नेताओं के द्वारा नोटबंदी को उचित ठहराते हुए केंद्र के फैसले को उचित ठहराया फिर भी नोटबंदी के जो फायदे उस वक्त गिनाए गए थेवे फायदे आज कहीं भी आकार लेते नहीं दिख रहे हैं।

दूसरी ओर नोटबंदी जैसे जनता से सीधे जुड़े मामले को विपक्ष में बैठी कांग्र्रेस के द्वारा भुनाने में पूरी तरह कोताही ही बरती गई। नोटबंदी एक ऐसा माममला था जिससे हर वर्ग का व्यक्ति प्रभावित हुआ था। कांग्रेस के आला नेताओं के द्वारा इस मामले में जिस तरह का रवैया अपनाया गया उसके परिणाम आज सामने हैं। इस साल हुए चुनावों में कांग्रेस को जिस तरह से जनादेश मिला है उससे कांग्रेस के आला नेताओं को सबक लेना चाहिए कि वे जनता की नब्ज नहीं टटोल पा रहे हैं।

उस दौरान के समाचार माध्यमों को अगर उठाकर देखा जाए तो कमोबेश यही बात स्थापित होती है कि 08 नवंबर 2016 के बाद पांच सौ और एक हजार के नोटों का चलन बंद करने का फैसला पूरी तरह अव्यवहारिक ही माना गया था। इसके बाद भी जनता की परेशानीमूड को भांपने में विपक्ष में बैठी कांग्रेस पूरी तरह ही असफल रही।

केद्र का यह फैसला शुरूआती दौर में विवादस्पद माना गया। सियासी दलों के द्वारा इस मामले को जोर शोर से न उठाए जाने के चलते जनता के द्वारा इसे विधि का विधान ही समझकर अंगीकार कर लिया गया। आज नोटबंदी का मामला जनता के मन में सीलता अवश्य होगा किन्तु उस पीड़ा को रियाया किसके कंधे पर सर रखकर व्यक्त करे यह बात आज भी अनुत्तरित ही है। नोटबंदी पर आज भी बहस जारी है।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार नोटबंदी के उपरांत जारी आर्थिक मंदी के लिए कहीं न कहीं नोटबंदी ही प्रमुख कारक के रूप में उभरकर सामने आई है। सरकार का दावा था कि नोटबंदी से कालाधनजाली नोटमनी लॉड्रिंगआतंकी फंडिंग जैसी विसंगतियों को सामने लाया जा सकेगा।

विडम्बना ही कही जाएगी कि तीन साल बीत जाने के बाद भी सरकार के दावे महज कागजी ही साबित हुए। विपक्षी दलों के द्वारा भी इस गंभीर मसले पर केंद्र सरकार को घेरा नहीं जाना उनकी विफलता की ओर ही इशारा करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

बैंक घोटाले किसके शासनकाल में हुए हैंयह बात महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि बैंक घोटालों के उजागर होने के बाद क्या बैंक्स का पैसा वापस मिला! क्या आरोपियों को पकड़ा जा सका! क्या उनको सजा दिलवाने की कार्यवाही पूरी ईमानदारी से की गई!

नोटबंदी के उपरांत बाजार की हालत किस तरह की हो चुकी है यह बात किसी से छिपी नहीं है। आम आदमी की क्रय शक्ति को लेकर सत्ताधारी और विपक्षी दलों के नेता बेलगाम होकर बयानबाजी कर रहे हैं। किसी को भी रियाया की चिंता नहीं है। नोटबंदी के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर स्वस्थ्य बहस के बजाए खुद को स्थापित करने की गरज से दिए जाने वाले बयान वाकई में चिंता का विषय बने हुए हैं।

नोटबंदी के फायदे क्या हुए यह बात तो सरकार ही बता सकती है पर इसके दुष्परिणाम के रूप में एक बात और सामने आई है वह यह कि लोगों ने अपना पैसा अब बैंक में रखना कम कर दिया है। लगातार हुए बैंक घोटालों से बैंक्स की साख पर भी बट्टा लगा है।

नैशनल अकाउंट स्टैटिस्टिक्स (एनएएस) के ताजा आंकड़ों पर अगर गौर किया जाए तो यही बात उभरकर सामने आती है कि नोटबंदी के उपरांत लोगों ने बैंक्स पर भरोसा करने के बजाए घरों पर ही नकदी रखने में दिलचस्पी दिखाना आरंभ कर दिया गया है। इस पर सरकार को विचार करने की जरूरत है।

एनएएस के आंकड़ों के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2011 – 2012 से 2015 – 2016 (नोटबंदी के पहले) तक लोगों के घरों में नकद रखने का आंकड़ा बाजार में घूम रही लिक्विड मनी का कुल 09 से 12 फीसदी हुआ करता था। नोटबंदी के उपरांत यह आंकड़ा बहुत तेजी से बढ़ा है। यहां तक कि वित्तीय वर्ष 2017 – 2018 में यह आंकड़ा 26 फीसदी तक पहुंच गया। जाहिर है चूक कहीं न कहीं तो हुई ही है।

आंकड़ों पर अगर गौर किया जाए तो लोग अब निवेश करने में भी हिचकते दिख रहे हैं। लोग निवेश करने से क्यों करता रहे हैं इस बारे में भी विचार की महती जरूरत है। इसके अलावा बैंक में जमा करने के बजाए घरों में नकद रखने में क्यों दिलचस्पी ले रहे हैंइस पर भी शोध की आवश्यकता है। इसे बुरे संकेत के रूप में लिया जा सकता है।

नोटबंदी के उपरांत से रीयल इस्टेट का क्षेत्र भी आर्थिक मंदी से अछूता नही है। जमीनदुकानमकान आदि की खरीदी बिक्री पर भी इसकी जबर्दस्त मार पड़ी है। तीन साल बीतने के बाद भी अब तक यह क्षेत्र इससे उबर नहीं सका है। केंद्र सरकार को चाहिए कि आर्थिक मंदी को कैसे दूर किया जाएइस बारे में जल्द विचार कर पहल आरंभ की जाए वरना आने वाला कल बहुत ही भयावह हो सकता है . . .! (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)

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