रूपहले पर्दे को पार्श्व में ढकेल दिया छोटे पर्दे ने
(लिमटी खरे)
संचार क्रांति की तेज रफ्तार से बदलती तकनीक (टेक्नालाजी) के हर आयाम को लोगों ने महसूस तो किया किन्तु बदलाव इस तीव्र गति से हुआ कि लोग इसे भांप ही नहीं पाए। आज प्रौढ़ हो रही पीढ़ी हिन्दुस्तान में हर मामले में हुए बदलाव की साक्षात गवाह है।
अस्सी के दशक तक महानगरों को छोड़कर शेष शहरों में मनोरंजन, ज्ञानार्जन आदि के लिए रेडियो ही इकलौता माध्यम हुआ करता था। गांवों क्या छोटे मझौले शहरों में रात में पसरे सन्नाटे के बीच रेडियो की आवाज ही लोगों को सुनाई देती थी। रेडियो पर तरह तरह के कार्यक्रम जिनमें गीत, कहानी, नाटक के साथ ही साथ अन्य उपयोगी जानकारियां लोगों तक पहुंचाई जाती थीं।
अस्सी के दशक के उपरांत कमोबेश हर जगह टेलीविजन की धमक सुनाई देने लगी। उस दौर में 12 काड़ी से लेकर 24 और 36 काड़ी तक के एंटीना और उसमें बीच में लगने वाले बूस्टर लोगों के घरों पर सीना ताने खड़े दिखते थे। अगर इन पर कोई पक्षी बैठ जाता तो घर भर के लोग एंटीना का एंगल मिलने एड़ी चोटी एक कर दिया करते थे।
इतिहास को अगर खंगाला जाए तो देश में पहली बार टीवी का प्रसारण 15 सितंबर 1959 को बतौर प्रयोग आरंभ हुआ था। उस समय सप्ताह मंें महज तीन दिन ही आधे आधे घंटे के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता था। यह वह दौर था जब देश में रूपहला पर्दा (वालीवुड) लोगों के सर पर सवार था।
इस दौर में फिल्मों के जरिए ही लोग मनोरंजन किया करते थे। इस दौर में समाज को बेहतर संदेश देने के लिए बनाई जाने वाली फिल्मों को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण तथा पंचायत विभाग के द्वारा गांव गांव जाकर प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाया जाता था। इस दौर में सिनेमाघरों में चलचित्र के आरंभ होने के पहले न्यूज रील के जरिए संदेश देने का प्रयास किया जाता था।
विश्व भर में छोटे पर्दे पर किए गए प्रयोग जब सफल हो चुके थे तब तक देश में छोटे पर्दे अर्थात टेलीविजन के लिए तकनीक विकसित नहीं हो पाई थी। 1965 में एक बार फिर इसे लेकर प्रयोग आरंभ हुआ और चुनिंदा शहरों में रोजाना टीवी का प्रसारण आरंभ हुआ।
इस दौर में समाचार बुलेटिन को देखकर लोग रोमांचित हो उठते थे। यह शुरूआती दौर था। इस प्रसारण के लिए यूनेस्को के द्वारा भारत की बहुत मदद की गई। तब इसका नाम टेलीविजन इंडिया रखा गया था। इसके बाद 1975 में इसका नाम बदलकर दूरदर्शन कर दिया गया। शुरूआती दौर में इसका प्रसारण महज सात शहरों में ही किया जाता था।
छोटे मझौले शहरों की उमर दराज हो रही पीढ़ी यह बात बेहतर तरीके से जानती होगी कि टीवी पर उस समय रविवार को आने वाली फिल्म के अलावा कृषि दर्शन (चूंकि भारत कृषि प्रधान देश है अतः किसानों के लिए नई तकनीकों की जानकारी इसके जरिए दी जाती थी) जमकर लोकप्रिय होने लगा।
उस दौर में रेडियो के जरिए सिर्फ आवाज ही सुनी जा सकती थी, किन्तु जब लोगों ने आवाज के साथ चित्र भी देखने आरंभ किए तो उनका कोतुहल बढ़ने लगा। उस दौर में शहर के लोग भी सजीव ब्राडकास्ट को देखने की गरज से कृषि दर्शन कार्यक्रम को भी बहुत ही गौर से देखा करते थे।
1980 में टीवी का प्रसारण देश भर में किया जाने लगा। जिन शहरों तक टीवी के सिग्नल नहीं पहुंच पाते थे उन शहरों में काफी ऊॅचाई तक के एंटीना और उसमें बूस्टर लगाकर टीवी देखने का प्रयास किया जाता था। अनेक शहरों में तो टीवी स्क्रीन पर मच्छर भिनभिनाते दिखते पर आवाज आने पर लोग इसी से संतोष भी किया करते थे।
1982 में एशियाड के दौरान देश में टीवी पर श्वेत श्याम के स्थान पर रंगीन कार्यक्रमों का प्रसारण आरंभ किया गया। 15 अगस्त 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को रंगीन टीवी के जरिए लोगों को संबोधित किया। रंगीन टीवी देखकर लोगों के बीच इसने जबर्दस्त तरीके से जगह बनाना आरंभ कर दिया। एशियाड का रंगीन प्रसारण लोगों के सर चढ़कर बोला।
दिल्ली में मण्डी हाऊस से कार्यक्रमों का चयन और नियंत्रण आरंभ हुआ। उस दौर में रविवार की शाम आने वाली फिल्म को लोग बिना किसी शुल्क दिए ही देख पाते जो लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। रविवार की शाम से ही सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था।
टीवी पर प्रसारित होने वाले हम लोग सीरियल का प्रसारण 07 जुलाई 1984 से आरंभ हुआ। दरअसल इसके पहले तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे 1982 में मेक्सिको यात्रा पर गए और उन्हें इस तरह के सीरियल के प्रसारण का आईडिया दिमाम में आया। इसके बाद बुनियाद सीरियल के प्रसारण के साथ ही दूरदर्शन पर सीरियल्स के प्रसारण के मार्ग प्रशस्त होने लगे।
कालांतर में रामायण और महाभारत जैसे सीरियल्स ने लोगों को छोटे पर्दे का मुरीद बना दिया। यह अलहदा बात है कि शुरूआती दिनों में दूरर्शन को बुद्धू बक्सा (ईडीयट बाक्स) भी कहा जाता था। बाद में जब निजि चेनल्स ने इस क्षेत्र में पैठ बनाई तब दूरदर्शन अपनी कथित नीतियों के चलते लगातार ही पिछड़ने लगा।
टीवी पर शक्तिमान, जूनियर जी, ही-मैन, व्योमकेश बख्शी, अलिफ लैला, चंद्रकांता जैसे सीरियल्स ने लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज किया। 26 जनवरी 1993 को दूरदर्शन अपना दूसरा चौनल लेकर आया। इसका नाम था मेट्रो चौनल। इसके बाद पहला चौनल डीडी 1 और दूसरा चौनल डीडी 2 के नाम से लोकप्रिय हो गया।
लगभग आधी सदी तक टीवी के क्षेत्र में सरकार के सीधे नियंत्रण वाले दूरदर्शन का राज रहा, पर 16 दिसंबर 2004 को जब केबल्स के अलावा डीटीएच (डारेक्ट टू होम) सेवाओं का आगाज किया गया उसके बाद से इस क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव दर्ज किया गया। अब टीवी पर सीरियल्स के अलावा सीरीज का जादू लोगों के सर चढ़कर बोल रहा है। फिलहाल देश में एक हजार से ज्यादा निजि चेनल्स का प्रसारण जारी है।
अस्सी के दशक के बाद जिस तरह से छोटे पर्दे (टीवी) ने लोगों के घरों में पैठ बनाई है उससे रूपहल पर्दे अर्थात मायानगरी या फिल्मी दुनिया को एक चुनौति मिलना आरंभ हो गई। सिनेमाघरों में दर्शकों की तादाद शनैः शनैः घटती चली गई। नब्बे के दशक में ही एक के बाद एक सिनेमाघर बंद होना आरंभ हो गए। अस्सी के दशक में देश में जितने सिनेमाघर हुआ करते थे आज उनकी तादाद उससे आधी ही रह गई है। अब इंटनेट ने अपनी आमद दी है तो आने वाले समय में टीवी पर भी दर्शकों की तादाद घटती जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
———————-
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY