16 फरवरी 2020
अपनी बात
टेलीकॉम कंपनियों की हुकुम उदूली पर अदालत की नाराजगी
(लिमटी खरे)
टेलीकॉम कंपनियों के द्वारा बकाया राशि जमा न कराए जाने पर शीर्ष अदालत के द्वारा जिस तरह का रवैया अपनाया है उसे देखकर यही प्रतीत हो रहा है कि सरकारी कवायद से शीर्ष अदालत बहुत ज्यादा नाराज है। शीर्ष अदालत के द्वारा टेलीकॉम कंपनियों को 94 हजार करोड़ रूपए जमा करने के लिए समय सीमा तय की गई थी। टेलीकॉम कंपनियों के द्वारा शीर्ष अदालत के निर्देश को भी बहुत हल्के में लिया, और समय सीमा गुजरने के बाद भी राशि जमा नहीं कराई गई। अदालत की नाराजगी को समझा जा सकता है। दरअसल, सरकार ही टेलीकॉम कंपनियों की तारण हार बनकर सामने आती दिखी, संभवतः यही बात शीर्ष अदालत को नागवार गुजरी। शीर्ष अदालत के द्वारा अगर यह कहा गया कि देश में कोई कानून बचा है! क्या कोर्ट के दरवाजे बंद कर दें! यह वाकई सरकार के लिए शर्मनाक बात मानी जा सकती है।
1.47 लाख करोड़ रूपए के समायोजित सकल राजस्व अर्थात एडजस्टेड ग्रास रेवन्यू (एजीआर) के मामले में देश की शीर्ष अदलात के द्वारा टेलीकॉम कंपनियों और संचार विभाग के रवैए पर तल्ख नाराजगी जताई है। जस्टिस अरूण मिश्रा, जस्टिस अब्दुल नजरी और जस्टिस एम.आर. शाह की संयुक्त पीठ ने टेलीकॉम कंपनियों से कहा कि क्यों न उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही की जाए। शीर्ष अदालत का रवैया बहुत ही सख्त दिखा। उसने कहा कि क्या इस देश में काननू नहीं बचा! इस देश में रहने से बेहतर है कि इसे छोड़कर चले जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा पिछले साल 24 अक्टूबर को टेलीकॉम कंपनियों को निर्देश जारी किए गए थे कि वे 23 जनवरी तक इस राशि को सरकारी खजाने में जमा करवाएं। जैसा कि अमूमन होता है कि जब भी किसी के खिलाफ वसूली की कार्यवाही की जाती है तब उसे बचाने के लिए पिछले दरवाजे के तरह तरह के हथकंडे अपनाए जाने आरंभ हो जाते हैं। इस मामले में भी यही हुआ। संचार विभाग के द्वारा एक परिपत्र जारी किया गया, जिसमें इस बात को रेखांकित किया गया था कि अगर शीर्ष अदालत के निर्देश के अनुसार ये कंपनियां तयशुदा रकम जमा नहीं कर पाती हैं, तो इनके खिलाफ सख्ती न की जाए।
देश में न्यायपालिका सर्वोपरि है, इस लिहाज से सरकार को अगर कोई बात कहना भी था तो सर्वोच्च न्यायालय में ही उसे अपनी बात रखना चाहिए था, न कि अदालत के निर्देश के बाद सरकार को टेलीकॉम कंपनियों को इस तरह की राहत दी जाना चाहिए थी। सरकार के इस पत्र को ही टेलीकॉम कंपनियां अपनी ढाल के रूप में इस्तेमाल करती दिखीं। इन सारी परिस्थितियों में शीर्ष अदालत का रवैया समझा जा सकता है।
वैसे भी 94 हजार करोड़ रूपए की रकम कम नहीं होती। वैसे टेलीकाम कंपनियों के द्वारा जिस तरह उपभोक्ताओं को लगभग सब कुछ निशुल्क देने की पेशकश लंबे समय से की जा रही है। उपभोक्ताओं को इंटरनेट की आदत सी पड़ चुकी है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। सेवा प्रदाता कंपनियों के द्वारा अबर एजीआर की किश्त जमा नहीं करवाई गई है तो अब यह बहाना नहीं चल सकता कि वे घाटे में हैं। टेलकॉम कंपनियॉ घाटे में कब से आईं हैं इसका आडिट भी करवाना चाहिए। यह कहां की समझदारी है कि सब कुछ निशुल्क बांटों और सरकार को निर्धारित शुल्क न चुकाओ!
असल में टेलकॉम कंपनियों के द्वारा यह कहा गया कि एजीआर का आंकलन सेवा से अर्जित होने वाले राजस्व के हिसाब से होना चाहिए, जबकि सरकार का कहना था कि पूरे राजस्व के आधार पर इसका आंकलन किया जाए। दोनों के बीच विवाद बढ़ा और मामला अदालत में जा पहुंचा। अदालत के द्वारा इसे चुकाने के निर्देश दिए गए।
इस पूरे मामले को सरकार और टेलीकॉम कंपनियों के बीच विवाद के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इस मामले का एक पहलू यह भी है जो बहुत महत्वपूर्ण माना जा सकता है, और वह है टेलीकॉम कंपनियों की आर्थिक स्थिति का खराब होना। इसके मूल में लाईसेंस फीस तो कतई नहीं मानी जा सकती है। इसके पीछे मोबाईल कंपनियों के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा को काफी हद तक जवाबदेह माना जा सकता है। उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने और उन्हें अपने साथ बनाए रखने की गरज से टेलीकॉम कंपनियां जिस दर पर सेवाएं दे रहीं हैं, उससे उन पर आर्थिक संकट मण्डराना स्वाभाविक ही है।
देखा जाए तो आज के युग में टेलीकॉम सेक्टर अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। जिस तरह से पिछले दो तीन सालों से टेलीकॉम कंपनियां घटी दरों पर उपभोक्ताओं को लुभाने का जतन कर रहीं हैं उस स्थिति को लंबे समय तक बरकरार नहीं रखा जा सकता है। इसके चलते अनेक कंपनियां बंद भी हुईं कुछ कंपनियों ने आपस में एक दूसरे के साथ समझौता कर विलय भी कर लिया गया। सरकार को इस बारे में सोचना होगा, और टेलीकॉम सेक्टर को सांसें उधार कैसे दी जा सकती हैं, इस बारे मे गंभीरता से विचार भी करना होगा। (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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