08 जनवरी 2020
अपनी बात
भ्रष्टाचार के दलदल में सड़ांध मारती केंद्रीय योजनाएं
(लिमटी खरे)
भ्रष्टाचार भारत देश को घुन की तरह खा रहा है। आजादी के बाद कुछ समय तक तो सियासतदारों और नौकरशाहों में नैतिकता रही, पर शनैः शनैः यह नैतिकता भी समाप्त होती चली गई। भ्रष्टाचार को अब शिष्टाचार की श्रेणी में लाकर रख दिया गया है। एक समय था जबकि भ्रष्ट लोगों को समाज में नीची नजरों से देखा जाता था, पर अब तो जिसके पास जितना माल, रसूख, पद है वही समाज में उच्च स्थान पर बैठा दिखता है। भ्रष्टाचार के सबसे ज्यादा मामले अगर कहीं सामने आते हैं तो वह केंद्रीय इमदाद वाली योजनाओं में दिखाई देते हैं। इसका कारण यह है कि केंद्र पोषित योजनाओं का क्रियान्वयन करने की जवाबदेही राज्य सरकारों की होती है, पर राज्य सरकारों के द्वारा इन मामलों में निगरानी उचित तरीके से न किए जाने का दुष्परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। केंद्रीय दलों के समय समय पर जांच किए जाने के बाद भी इस तरह की योजनाओं में भ्रष्टाचार का घुन कैसे लग जाता है यह बात समझ से परे ही है।
एक गैर सरकारी संगठन ट्रांसपरेंसी इंटरनेशल की बीते साल की एक रिपोर्ट में 180 देशों में भारत को एशिया, प्रशांत क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामले में सबसे खराब स्थिति वाले देशों के साथ रखा गया है। इसमें भारत को 81वीं पायदान पर स्थान दिया गया है। यह रिपोर्ट भारत के सरकारी सिस्टम को आईना दिखाने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि आजादी के समय देश में भ्रष्टाचार नहीं होता था। आजादी के साथ ही 1948 में जीप घोटाला सामने आया। इसके बाद1951 में मुद्रल मामला प्रकाश में आया। 1962 में लाल बहादुर शास्त्री द्वारा गठित संतानम समिति को गठन किया गया था। इस समिति के द्वारा अपने प्रतिवेदन में इस बात का उल्लेख किया था कि आजादी के बाद देश के मंत्रियों के द्वारा अवैधरूप से धन अर्जित कर अपनी संपत्ति बना ली गई थी।
1971 में नागरवाला घोटाला प्रकाश में आया था। इस घोटाले में भारतीय स्टेट बैंक की दिल्ली में संसद मार्ग स्थित शाखा से बिना किसी आहरण पर्ची, धनादेश के ही साठ लाख रूपए का आहरण किया गया था। इसमें बैंक के खजांची को एक फोन आया और बंगलादेश के लिए एक गुप्त मिशन हेतु साठ लाख रूपए देकर इसकी रसीद प्रधानमंत्री कार्यालय से लेने की बात कही गई थी। फोन पर आई आवाज प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पीएन हक्सर की थी। इसके बाद पता चला कि यह फोन रूस्तम सोहराब नागरवाला के द्वारा किया गया था। उन्हें गिरफ्तार किया गया था, बाद में 1972 में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई थी।
1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में बोफोर्स घोटाला सामने आया। इसमें स्वीडन की हथियान बनाने वाली कंपनी बोफोर्स से भारतीय सेना के लिए तोपों का सौदा किया गया था। स्वीडन रेडियो ने 1987 में इसको उजागर किया गया था। यह मामला भी सालों तक दिशाहीन तरीके से जांच के दौरान चलता रहा।
1993 में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा घूसकाण्ड सामने आया। इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव पर आरोप लगे ोि कि 28 जुलाई 1993 में भाजपा के द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव में उनके द्वारा शिबू सोरेन के जरिए पचास पचास लाख रूपए में सरकार बचाने का सौदा किया था।
1993 में ही दूरसंचार घोटाला भी सामने आया था। तत्कालीन केद्रीय संचार मंत्री सुखराम पर आरोप थे कि उनके द्वारा हरियाणा टेलीकॉम लिमिटेड को लाभ पहुंचाने के लिए यह घोटाला किया था। 1996 में बिहार के तत्तकालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाला तो 2013 में आगस्ता वैस्टलैण्ड हेलीकाप्टर घोटाला सामने आ चुका है।
ये सारे घोटाले केंद्रीय स्तर के थे, पर केंद्रीय इमदाद पर राज्यों में चल रही योजनाओं में घोटाले आम बात हैं। समग्र स्वच्छता अभियान, मर्यादा अभियान आदि के तहत देश भर में बनने वाले शुष्क शौचालयों में भी जमकर घोटाले सामने आए हैं। इन फर्जीवाड़ों को प्रकाश में तो लाया गया है, पर किसी पर कार्यवाही न होना आश्चर्य का ही विषय है।
कहा जाता है कि जहां भी जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से संचित राजस्व का निवेश किया जाता है, वहां सतत निगरानी की आवश्यकता होती है। विडम्बना ही कही जाएगी कि देश में सिस्टम कुछ इस तरह का बना दिया गया है कि दूध की रखवाली के लिए बिल्ली को ही पाबंद कर दिया जाता है। सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का की तर्ज पर ही देश में चल रही योजनाओं की निगरानी की जा रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा आरंभ की गई आयुष्मान भारत योजना भी भ्रष्टाचार के दलदल में फंसकर सड़ांध मारती नजर आ रही है। इस तरह की योजनाओं को जिस पवित्र उद्देश्य के साथ मैदान में उतारा जाता है उस पर भ्रष्टाचार के परवाने बन चुके अफसरों के द्वारा दीमक बनकर इसे खोखला करने में कोई कोर कसर नहीं रखी जाती है। आयुष्मान योजना में ही बड़ी तादाद में फर्जी कार्ड बनाए गए। प्रधानमंत्री के गुजरात राज्य का ही अगर उदहारण लिया जाए तो यहां एक परिवार के ही 1700 लोगों के कार्ड बनाए गए। इसी तरह छत्तीसगढ़ में एक परिवार के नाम पर 109 कार्ड बने जिमसें 84 लाखों की आंखों की शल्य क्रिया की जाकर 171 अस्पतालों के फर्जी बिलों का भुगतान कर दिया गया!
देश के हृदय प्रदेश के उज्जैन शहर में बिना आवश्यकता ही एक महिला का गर्भाशय निकालने का मामला प्रकाश में आने के बाद अस्पताल प्रबंधन के खिलाफ पुलिस कार्यवाही की तैयारी है। यहां के गुरूनानक अस्पताल में 99 दिनों की अवधि में 539 महिलाओं के गर्भाशय निकालकर भुगतान प्राप्त किया गया। वहीं, जबलपुर में भी इस योजना के तहत 60 से ज्यादा मरीजों का गलत तरीके से कार्ड बनाया जाकर पैसे हड़पे गए।
इस योजना में केंद्रीय इमदाद से देश भर में पांच हजार करोड़ रूपए से ज्यादा का भुगतान किया गया है। इसमें से कितना पैसा जरूरतमंद लोगों के इलाज में खर्च हुआ होगा यह कहना मुश्किल ही है। दरअसल, इस तरह की योजनाओं को आरंभ करने के पहले सरकारों के द्वारा इसका परीक्षण हर स्तर और दृष्टिकोण से नहीं किए जाने से भ्रष्टाचार के नए तरीके इजाद करने वालों के लिए ये योजनाएं मुफीद ही साबित होती हैं। यहां तक कि सरकार के पैनल में शामिल होने के लिए भी अस्पतालों को रिश्वत देना पड़ता है। इस तरह की अन्य योजनाओं की समीक्षा के लिए केंद्र सरकार को किसी स्वतंत्र एजेंसी को पाबंद करते हुए समय सीमा में जांच के मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। इसके साथ ही साथ सरकारी धन का अपव्यय करने वाले अफसरान, निजि लोगों आदि पर कड़ी कार्यवाही करते हुए नज़ीर पेश करना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोका जा सके। (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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