17 फरवरी 2020
अपनी बात
एक तरफ भूखे लोग, दूसरी तरफ हो रही अन्न की बर्बादी!
(लिमटी खरे)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, साल दर साल, दशक दर दशक रहन सहन, खान पान आदि में परिवर्तन आना आम बात है। यह परिवर्तन अगर समाज या व्यक्ति के हित में है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए, पर दिखावे, चोचलों के लिए अगर परिवर्तन का लबादा ओढ़ा जा रहा है तो इसकी निंदा करते हुए इसे त्यागने की महती जरूरत है। शादी ब्याह या अन्य आयोजनों में पहले जहां कुछ दशक पहले तक पुड़ी, सब्जी, रायता, पुलाव, पापड़, बूंदी, एक मिठाई और छांछ से ही काम चल जाया करता था, अब इसका स्थान अनेक तरह के व्यंजनों ने ले लिया है। थाली का आकार तो नहीं बढ़ा, यह घटता ही चला गया, पर पकवानों की तादाद में कई गुना बढ़ोत्तरी हो चुकी है। पहले हलवाईयों (खाना बनाने वालों) के पास चुनिंदा आईटम ही हुआ करते थे, जिसके चलते लोगों के पास कम विकल्प होते थे, पर अब तो केटरिंग का व्यवसाय करने वाले व्यवसाईयों के पास उनके मेन्यू में कम से कम एक हजार तरह के आईटम देखने को मिलते हैं। पुड़ी की ही अगर बात की जाए तो आज कम से कम दो दर्जन से ज्यादा प्रकार की पुड़ी परोसी जाती हैं।
कुछ समय पहले तक महानगरों या बड़े शहरों में ही मंहगी शादियों और रिसेप्शन का चलन हुआ करता था। अब इस तरह परंपराओं ने गांव तक में पैर पसार लिए हैं। गांव में पुड़ी, सब्जी, रायता आदि के बजाए अब आधुनिक तरह से टेबिल पर खाना लगाया जाकर खिलाने का चलन चल पड़ा है। पंगतों में बिठाकर, दोना पत्तल में खिलाने का रिवाज अब इतिहास में शामिल हो चुका है। अब तो खड़े होकर खाने का चलन है। शादी ब्याह या अन्य आयोजनों में सबसे ज्यादा खर्च सजावट, दिखावे और खानपान में किया जाता है। कार्यक्रम समाप्त होने पर सजावट को अलग कर दिया जाता है। जितने लोगों के हिसाब से खाना बनाया जाता है, वह अक्सर बच जाता है जिसके चलते केटरिंग वाले इसे नाली में बहा देते हैं। इसका कारण यह है कि पशुओं को वे कहां खोजें, भूखे जरूरत मंद लोगों को खोजने में वे अपना समय जाया करना नहीं चाहते। शादी ब्याह के उपरांत दूसरे दिन पंडाल के आसपास मख्खियां भिनभिनाते देखी जा सकती हैं।
जब टेबिल पर चार तरह की पुड़ी, तीन तरह की रोटी, दस तरह की सब्जियां, दो से तीन तरह की दाल, पच्चीस तरह की सलाद, एक दर्जन से ज्यादा प्रकार के अचार, तीन तरह के पुलाव या चावल, चायनीज, चाट, पकौड़े, दस तरह की मिठाईयां, तीन तरह के रायते, चार तरह के पापड़ होंगे तो आप सभी को एक एक बार चखने का प्रयास जरूर करेंगे। जो आपको पसंद आएगा, वह आप खाएंगे, पर जो आपकी थाली में बच गया है, उसे आप वापस तो रखने से रहे। देश सहित दुनिया भर में थाली में बचा खाना कितनी बड़ी समस्या है इस बात का अंदाजा अनेक तरह के सर्वेक्षण के बाद आई रिपोर्टस के आधार पर लगाया जा सकता है।
कहा जाता है कि दुनिया भर में एक बार खाने के लिए जितना भोजन तैयार किया जाता है उसका एक तिहाई भोजन बर्बाद हो जाता है। इस भोजन की तादाद इतनी होती है कि दुनिया भर के दो अरब लोग इसे खा सकते हैं। अन्न की बर्बादी को देखकर सरकारें चिंतित दिखतीं हैं तो गैर राजनैतिक सामाजिक संगठनों की पेशानी पर भी इसे लेकर बल पड़ते दिखते हैं, पर इसके बाद भी इस बर्बादी को रोकने की दिशा में किसी तरह की ठोस पहल का न हो पाना आश्चर्य जनक ही माना जाएगा।
भारत के बारे में ही अगर बात की जाए तो देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ अन्नदाता किसान को ही माना जाता है। जब भी आप सड़क या रेल मार्ग के जरिए कहीं से गुजरते हैं तो आपको आसपास लहलहाते खेत दिखाई दे जाते हैं। देश में अन्न की खासी पैदावार है। एक अनुमान के हिसाब से देश में लगभग 25 करोड़ टन से ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन होता है। अब आप अंदाजा लगाईए कि इतनी विपुल मात्रा में अन्न के उत्पादन के बाद भी देश में हर चौथा व्यक्ति भूखा ही सोने पर मजबूर है।
किसानों को आर्थिक रूप से संपन्न बनाने के लिए सरकारों के द्वारा तरह तरह की योजनाएं बनाई गईं हैं। इन योजनाओ की जमीनी हकीकत क्या है इसे देखने की फुर्सत शायद किसी को नहीं मिल पाती है। सरकारी स्तर पर किसानों की धान, गेंहूं आदि को समर्थन मूल्य पर खरीदा जाता है। इसके उचित रखरखाव के चलते इसमें से लगभग तीस से चालीस फीसदी अनाज या तो सड़ जाता है या अंकुरित हो जाता है। ऐसा नहीं है कि हुक्मरान इस बात से वाकिफ नहीं हैं! इसके बाद भी अन्न की बर्बादी रूकने का नाम नहीं ले रही है। एक अनुमान के अनुसार देश में हर साल इक्कीस सौ करोड़ किलो गेहूॅ बर्बाद हो जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महज इतना ही गेंहूॅ आस्ट्रेलिया में हर साल पैदा किया जाता है।
भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 21 करोड़ टन सब्जियां और 12 करोड़ टन फल सिर्फ इसलिए खराब हो जाता है क्योंकि वितरण प्रणाली में अनेक तरह की खामियां हैं। हाल ही में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भूख सूचकांक) 2018 जारी हो गया है। इस सूचकांक के अनुसार देश में भुखमरी की स्थिति बहुत खराब है। इस सूचकांक में विश्व के 119 देशों का समावेश किया गया था, जिसमें भारत का स्थान अंत से महज पंद्रह ऊपर अर्थात 103वीं पायदान पर है।
इस सूचकांक में भारत के लिए राहत की बात सिर्फ यह मानी जा सकती है कि वह पाकिस्तान (जो 106 पायदान पर है) से आगे है, पर नेपाल और बंग्लादेश जैसे देशों से भारत बहुत पीछे है। भारत पिछले साल 100वें स्थान पर था। इस सूचकांक का अगर अध्ययन किया जाए तो छः करोड़ अस्सी लाख लोग आज भी रिफ्यूजी कैंप में रहने को मजबूर हैं। 2014 के बाद विश्व भूख सूचकांक में भारत की स्थिति में लगातार ही गिरावट दर्ज की जाती रही है। 2014 में भारत 55वें स्थान पर था, तो 2015 में यह 80वें स्थान पर जा पहुंचा और 2016 में 97वें स्थान पर तो 2018 में यह सौवें स्थान पर पहुंचा और पिछले साल तीन पायदान उतरकर यह 103वें स्थान पर आ गया।
एक आंकलन के अनुसार देश में लगभग बीस करोड़ से अधिक लोग कुपोषित माने जाते हैं। देश में अन्न की बरबादी हो रही है वहीं दूसरी ओर कुपोषत लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। इस तरह के आंकड़े निश्चित तौर पर रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा करने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं।
कुछ शहरों में रोटी बैंक की शुरूआत की गई है। उत्साही युवाओं के द्वारा सोशल मीडिया व्हाट्सऐप और फेसबुक पर घरों में बचने वाली रोटी, दाल, सब्जी आदि को दान देने की अपीलें की जा रहीं हैं। युवा बचे हुए खाने को एकत्र कर जरूरत मंद लोगों तक इसे ले जा रहे हैं। कमोबेश हर शहर में एक कचरा गाड़ी मोहल्ले मोहल्ले से होकर गुजरती है। इस कचरा गाड़ी में चालक के बाजू वाली सीट को निकालकर अगर उसमें रोटी और सब्जी, दाल आदि के लिए पात्र रखवा दिए जाएं तो लोगों के घरों में बचा खाना लोग इसमें डाल सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिए इस खाने को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।
इसके अलावा शादी ब्याह में कैटरिंग करने वालों को भी जिला स्तर पर प्रशासन के द्वारा ताकीद किया जा सकता है कि बचे हुए खाने को उनके द्वारा एक निर्धारित स्थान पर ले जाकर छोड़ दिया जाए। इस खाने को भी स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिए जरूरत मंद लोगों में बटवाया जा सकता है। देश भर में शहरों के हिसाब से एक मोबाईल या हेल्प लाईन नंबर भी जारी किया जा सकता है, जिस पर कॉल करने पर प्रशासन के द्वारा निर्धारित संस्थाओं के सदस्यों के द्वारा घरों घर से बचा हुआ भोजन एकत्र किया जा सकता है। देखा जाए तो सरकार को शादी ब्याह एवं अन्य समारोहों में मेहमानों की संख्या निर्धारित करने के लिए कानून भी बनाया जाना चाहिए। 2011 में यूपीए सरकार ने इसकी पहल भी की थी, पर यह भी परवान नहीं चढ़ पाया। (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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