19 जनवरी 2020
अपनी बात
समय आ गया है खुफिया तंत्र को और अधिक मजबूत करने का!
(लिमटी खरे)
सत्तर के दशक में रिश्वत, घूस यानी काम के बदले पैसे लेने को सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत ही बुरा माना जाता था। जो भी रिश्वत लेता या किसी का रहन सहन आय से अधिक प्रतीत होता, समाज में उसे हेय दृष्ट से ही देखा जाता था। कालांतर में रिश्वत को लोग मजाक में सुविधा शुल्क भी कहने लगे। आज के समय में सरकारी सिस्टम में रसूखदार वही है जिसके पास जितना पैसा और ताकत है। तीन चार दशकों में देश में वर्जनाएं इस कदर टूटीं कि आज प्रौढ़ हो रही पीढ़ी को तो सब बदलता दिख रहा है पर आज के समय में युवा होती पीढ़ी को लग रहा है मानो यही सिस्टम है। बिना रिश्वत लिए दिए काम होते ही नहीं हैं। इस पूरे तंत्र में अंदरूनी सुरक्षा की कमान संभालने वाली पुलिस की खाकी वर्दी के दामन पर अगर दाग लगें तो यह बात निश्चित तौर पर विचारणीय ही होगी।
एक समय था जबकि अराजक शासन व्यवस्था के लिए देश में उत्तर प्रदेश और बिहार को अव्वल माना जाता था। उत्तर प्रदेश में वर्तमान में पुलिस की व्यवस्थाएं देखकर यही लगता है कि इसमें अराजकता, भ्रष्टाचार और जातिवाद की सड़ांध बुरी तरह आती दिख रही है। उत्तर प्रदेश के निजाम योगी आदित्य नाथ सिंह के द्वारा गौतम बुद्ध नगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक वैभव कृष्ण को निलंबित कर दिया गया है।
दरअसल, वैभव कृष्ण ने कुछ समय पहले भारतीय पुलिस सेवा के पांच अधिकारियों की शिकायत की थी, जिसमें उनके द्वारा इन पांच आईपीएस अफसरों की सत्ता के इर्दगिर्द पहुंच और भ्रष्टाचार की बातें कहीं गईं थीं। आईपीएस अधिकारी के द्वारा की गई शिकायत से निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार की छवि पर दाग अवश्य लगा है। इसके बाद राज्य के मुख्य सचिव अवनीश अवस्थी एवं पुलिस महानिदेशक मीडिया से रूबरू भी हुए, पर डैमेज कंट्रोल के बजाए उत्तर प्रदेश सरकार की छवि और खराब होने से वे नहीं बचा पाए। जिन पांच अफसरों के खिलाफ वैभव कृष्ण ने शिकायत की थी, उनको तो तबादलों की हल्की सी चाबुक से मारा गया, किन्तु पूरे मामले को उठाने वाले को ही सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा।
यह एक मामला हाल ही का है। इसके अलावा और न जाने कितने मामले हैं, जिनमें भ्रष्टाचारियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को ही सजा मिली है। इसके अलावा जब पुलिस की वर्दी पर आरोप लगने लगें तो इसे क्या माना जाएगा! देश भर में इस तरह के उदहारण मौजूद हैं जिनमें पुलिस के अधिकारियों को ही गलत कामों के कारण सजा मिली। अंडरवर्ल्ड या गलत कामों में लिप्त माफिया पर दमन की कार्यवाही करने वाले अनेक पुलिसियों पर करोड़ों अरबों की संपत्ति बनाने के आरोप भी लगते रहे हैं। यहां तक कि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में पुलिस के एक शार्प शूटर अधिकारी पर अब तक छप्पन नामक फिल्म भी बन चुकी है।
पुलिस का काम समाज से अपराध रोकना, लोगों की जान माल की रक्षा करना, शांति व्यवस्था कायम रखने का है। पुलिस के अधिकारी जब अपराध मिटाने के नाम पर अपराधियों के हाथों का खिलौना बन जाएं तो उस स्थिति को क्या कहना चाहिए! दरअसल, जान जोखिम में डालने वाले अधिकारियों को आऊट ऑफ टर्न पदोन्नति, पदक आदि मिलते हैं। इसके अलावा अपनी एक छवि गढ़कर रातों रात अमीर बनने की चाहत भी अनेक अधिकारियों में पैदा हो जाती है, यही कारण है कि इस तरह के अधिकारी जाने अनजाने ही अपराध की दुनिया के सरगनाओं के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं।
देश भर में इस तरह के अनेक उदहारण हैं, जिनमें पुलिस अधिकारी पहले तो जनता की नजरों में सुपर स्टार बने फिर जब उनकी कलई खुली तो वे जनता की नजरों में गुजरे जमाने के खलनायक प्रेम चौपड़ा, अजीत और के.एन. सिंह की तरह नजर आने लगे। दया नायक, डी.डी. बंजारा,त्र राजबीर सिंह, आर.के. शर्मा आदि इस तरह के अनेक उदहारण लोगों के सामने हैं, जिन पर लगातार ही आरोप लगते रहे हैं।
हालिया घटनाक्रम में जम्मू काश्मीर पुलिस के उप पुलिस अधीक्षक देवेंद्र सिंह विवाद में आए हैं। देवेंद्र सिंह को आतंकवाद के खिलाफ विशेष काम करने के लिए राष्ट्रपति पदक से सम्मानित भी किया गया था। हाल ही में उन्हें आतंकवादियों के साथ एक कार में पकड़ा गया है। उनसे पूछताछ में जो खुलासे सामने आ रहे हैं वे काफी गंभीर किस्म के माने जा सकते हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने आतंकवादियों को चण्डीगढ़ के रास्ते दिल्ली पहुंचाने के लिए बड़ी रकम का सौदा किया था।
इस मामले में पुलिस की पकड़ में आए उप पुलिस अधीक्षक देवेंद्र सिंह के तार अफजल गुरू से भी जुड़ते बताए जा रहे हैं। अफजल गुरू पर आरोप है कि उसने 13 दिसंबर 2001 को देश की सबसे बड़ी पंचायत (संसद) पर हमला करवाया था। इस हमले में 14 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इस मामले मे अफजल गुरू को फांसी की सजा सुनाई गई। 2013 में अफजल गुरू ने एक पत्र में देवेंद्र सिंह का नाम भी लिया था। इस पत्र के अनुसार अफजल गुरू ने संसद पर हमले के आरोपियों के लिए देवेंद्र सिंह से दिल्ली में फ्लेट और उनके लिए कार की व्यवस्था करने की जवाबदेही सौंपी थी। यह अलहदा बात है कि उस समय अफजल गुरू के आरोपों के प्रकाश में सबूत नहीं मिल पाए, जिससे यह मामला ठण्डे बस्ते के हवाले कर दिया गया था। भारतीय व्यवस्था की विडम्बना देखिए कि अफजल गुरू जैसे कुख्यात के द्वारा लिखे गए पत्र में एक पुलिस अधिकारी देवेंद्र सिंह का नाम आया और देश के खुफिया तंत्र के द्वारा देवेंद्र सिंह पर नजर रखना भी मुनासिब नहीं समझा!
यहां शोध का विषय यह है कि अफजल गुरू के पत्र में जिस पुलिस अधिकारी को आतंकियों के लिए मकान और परिवहन की व्यवस्था की जिम्मेदारी दी गई हो, उस अधिकारी को पिछले साल स्वाधीनता दिवस पर राष्ट्रपति पदक देने की सिफारिश किसके द्वारा और किन परिस्थितियों में की गई! क्या इस तरह के पदक देने के पहले गोपनीय चरित्रावली और अन्य बातों का ध्यान नहीं रखा जाता है! अगर नहीं तो इस व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से बदलना ही मुनासिब होगा।
हालात देखकर तो यही प्रतीत हो रहा है कि अब खुफिया तंत्र के लिए अलग से व्यवस्था की जाना चाहिए। सूबों में इस तंत्र को पुलिस से प्रथक कर दिया जाना चाहिए। बढ़ती आबादी, उन्नत होती टेक्नालॉजी, बढ़ते अपराधों, घुसपैठ, अंडर वर्ल्ड की धमक, हत्याओं, अपहरण, बलात्कार आदि के ग्राफ को देखते हुए केंद्र और सूबाई सरकारों को अब सिस्टम को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत महसूस होने लगी है। हर जगह खुफिया तंत्र को प्रथक कर उसे पूरी तरह तकनीकि, आर्थिक एवं अन्य व्यवस्थाओं से समृद्ध किए जाने की आवश्यकता अब महसूस होने लगी है। आज नहीं तो कल, पर हुक्मरानों को इस दिशा मे सोचना ही होगा . . .! (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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