जनक छन्द की साधना
ज्यों वामन का त्रिपुर को
तीन चरण में नापना
इस जनक छन्द में डॉ० ब्रह्मजीत गौतम जी ने छंद की पूरी व्याख्या ही कर डाली है। मात्र तीन चरणों के मेल या तुक विधान का नाम जनक छन्द नहीं है, वरन यह उतना ही दु:साध्य यत्न है, जैसा की पौराणिक किद्वंती के अनुसार भगवान विष्णु के वामन अवतार द्वारा तीन पग में समस्त लोकों को नाप लेना। जनक छन्द त्रिपदिक छंदों की आधुनिकतम कड़ी है। यह दोहा परिवार का सबसे नवीनतम छंद है। लय छन्द होने के कारण यह वर्तमान कवियों में स्वतः ही लोकप्रिय हो गया। मात्र सत्रह वर्षों के किशोरकाल में ही हिंदी के अनेक लब्ध प्रतिष्ठित कवियों ने इसे यादगार बना दिया है और एक से बढ़कर एक कालजयी जनक छन्द कलमकारों ने दिए हैं जो कि विविध पुस्तकों में, संकलनों में, और यत्र-तत्र सर्वत्र पत्र-पत्रिकाओं में फूल की तरह फैले, खुशबू बिखेर रहे हैं व शोभा बढ़ा रहे हैं। “कथासंसार” (त्रैमासिक, संपादक: सुरंजन, ग़ज़ियाबाद) को जनक छन्द पर प्रथम विशेषांक निकालने का श्रेय जाता है।
जनक छन्द की विशेषता है कि यह 64 रूपों में लिखा जा सकता है। प्रत्येक पंक्ति में तेरह मात्राएँ (ग्यारहवीं मात्रा प्रत्येक पंक्ति में अनिवार्य रूप से लघु) होनी चाहियें। अर्थात तीनों पंक्तियों में तेरह + तेरह + तेरह मात्राओं के हिसाब से उन्तालीस मात्राएँ होनी चाहियें। मेरा जनक छन्द पर रचित जनक छंद देखें :—
जनक छंद सबसे सहज / (प्रथम चरण) १ १ १ २ १ १ १ २ १ १ १ = १३ मात्राएँ
मात्रा तीनों बन्द की / (दूसरा चरण) २ २ २ २ २ १ २ = १३ मात्राएँ
मात्र उन्तालीस महज / (प्रथम चरण) २ १ २ २ २ १ १ १ १ = १३ मात्राएँ
नए रचनाकारों हेतु जनक छन्द के मात्राओं की गणना (तख़्ती सहित) इसी लिए दी जी रही है कि किसी प्रकार के असमंजस की स्थिति विद्वानों न रहे। इससे आशा करता हूँ कि नए कवि जनक छन्द में आएंगे:—
भारत का हो ताज तुम / जनक छन्द तुमने दिया / हो कविराज अराज तुम = (तीनों चरण)
२ १ १ २ २ २ १ १ १ / १११ २ १ १ १ २ १ २ / २ १ १ २ १ १ २ १ १ १ = (३९ मात्राएँ)
सुर-लय-ताल अपार है / जनक छन्द के जनक का / कविता पर उपकार है = (तीनों चरण)
१ १ १ १ २ १ १ २ १ २ / १ १ १ २ १ २ १ १ १ २ / १ १ २ १ १ १ १ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
जनक छन्द की रौशनी / चीर रही है तिमिर को / खिली-खिली ज्यों चाँदनी = (तीनों चरण)
१ १ १ २ १ २ २ १ २ / २ १ १ २ २ १ १ १ २ / १ २ १ २ २ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
पूरी हो हर कामना / जनक छन्द की साधना / देवी की आराधना = (तीनों चरण)
२ २ २ १ १ २ १ २ / १ १ १ २ १ २ २ १ २ / २ २ २ २ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
छन्दों का अब दौर है / जनक छन्द सब ही रचें / यह सबका सिरमौर है = (तीनों चरण)
२ २ २ १ १ २ १ २ / १ १ १ २ १ १ १ २ १ २ / १ १ १ १ २ १ १ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
छलक रहा आनन्द है / फैला भारतवर्ष में / जनक पुरी का छन्द है = (तीनों चरण)
१ १ १ १ २ २ २ १ २ / २ २ २ ११ २ १२ / १ १ १ १ २ २ २ १ २ = (३९ मात्राएँ)
अर्थात दोहा के तीन सम चरण कर देने से एक जनक छंद तैयार हो जाता है। तुकों के आधार पर जनक छंद के पाँच भेद माने गए हैं जिन्हें सर्वप्रथम डॉ० महेन्द्र दत्त शर्मा “दीप” जी ने वर्गीकृत किया था। जिसका उल्लेख डॉ० ब्रह्मजीत गौतम की पुस्तक “जनक छंद एक शोधपरक विवेचन” (२००६ ई०) में मिलता है। यह पाँच भेद हैं:—
(१.) शुद्ध जनक छंद;
(२.) पूर्व जनक छंद;
(३.) उत्तर जनक छंद;
(४.) घन जनक छंद;
(५.) सरल जनक छंद।
इन पाँचों भेद को हम समय-समय पर विभिन्न कवियों द्वारा रचे गए जनक छंदों के माध्यम से समझने के प्रयत्न करेंगे। ये जनक छंद मुझे पिछले एक दशक से अब तक उपलब्ध पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्राप्त हुए हैं। जिन्हें उपलब्ध करवाने में हिंदी के वर्तमान दौर के सुप्रसिद्ध कवि व शा’इर रमेश प्रसून जी / डॉ० अनूप सिंह जी (संपादक: “बुलंदप्रभा”, त्रैमासिक; बुलंदशहर, उ० प्र०); वरिष्ठ साहित्यकार सुरंजन (संपादक, “कथासंसार”, त्रैमासिक, ग़ज़ियाबाद) व शेष जनक छंद मुझे जनक छंद पिता अराज जी से उपलब्ध हुए।
प्रथम भेद (शुद्ध जनक छंद):— जहाँ प्रथम और तृतीय चरण की तुकें मिलें:—
यह कविता का छंद है
जिसमें सुर लय ताल में
मिलता परमानंद है / (कवि: उदय भानु हंस)
उसमें है थोड़ी कमी
वह न देवता हो सका
निश्चित होगा आदमी / (कवि: चन्द्रसेन विराट)
मुझमें उसकी प्यास है
मैं तो चिर पतझार हूँ
वह अनुपल मधुमास है / (कवि: कुँवर बेचैन)
पढ़े विश्व हिंदी सरल
गहो लेखनी हाथ में
हिंदी भाषा मधु सजल / (कवि: शिवशरण “अंशुमाली”)
परिवर्तन की आहटें
डरा रही हैं गाँव को
घोल रही कडुवाहटें / (कवि: त्रिलोक सिंह ठकुरेला)
द्वितीय भेद (पूर्व जनक छंद):– जहाँ प्रथम दो पदों की तुकें मिलें और तृतीय चरण स्वतंत्र हो। जैसे:—
राजनीति के गेट पर
लोग खड़े हर रेट पर
प्रवेश पाने के लिए / (कवि: ब्रह्मजीत गौतम)
स्वप्नों श्रृंगार में
प्यार भरे व्यवहार में
मानवता मिलती नहीं / (कवि: ओमशरण आर्य ‘चंचल’)
दिल से दिल को जोड़िये
प्रेम डोर मत तोड़िये
फूल खिले हैं प्यार के / (कवि: महावीर उत्तरांचली)
तृतीय भेद (उत्तर जनक छंद):— जहाँ प्रथम पंक्ति को छोड़कर द्वितीय और तृतीय पंक्ति में तुकें मिलती हों। उदाहरणार्थ:—
गीता का है यह कथन
संशय करे विनाश है
ऐसा उसका पाश है / (कवि: सौम्या जैन ‘अम्बर’)
लक्ष्य कहाँ उसका कठिन
जो चलने की ठान ले
अपनी गति पहचान ले / (कवि: नीलांजली जैन ‘केसर’)
चिंता ताज चिंतन करो
चिंता चिता समान है
चिन्तन से उत्थान है / (कवि: संयोगिता गोसाईं ‘दर्पण’)
समाचार उनका मिला
फूल खिले हैं आस के
आये दिन मधुमास के / (कवि: श्यामनन्द स० ‘रौशन’)
मारो गर्व घमण्ड भव
आलस और अनीति को
अन्यायी की निति को / (कवि: डॉ० कृष्णपाल गौतम)
चतुर्थ भेद (घन जनक छंद):— जहाँ तीनों पंक्तियों के अंत में तुकें मिलती हों। देखें निम्न जनक छंद:—
कविता पुष्पित वाटिका
सित मुक्ता मणि मालिका
जन-गण-मन समपालिका / (आचार्य महावीर प्र० “मूकेश”)
कितना थक कर चूर है
शायद वह मजबूर है
कहते हैं मजदूर है / (कवि: गुरुदेव रमेश ‘प्रसून’)
जो प्रभु को भजता सदा
शिव-शिव जपता सर्वदा
कभी न आती आपदा / (कवि: उमाशंकर शुक्ल “उमेश”)
नागपाल किसके गले
चिन्ता भस्म तन पर मले
कौन वृषभ पर चढ़ चले / (कवि: दयानन्द जड़िया ‘अबोध’)
पञ्चम भेद (सरल जनक छंद):— जहाँ तीनों चरणों के अंत में कोई तुकें न मिलती हों। उदाहरणार्थ:—
अनुकम्पा थी कृष्ण की
तब तक अर्जुन वीर था
कृष्ण गए वह लुट गया / (कवि: जनक छंद पिता “अराज”)
बेटा पढ़ना छोड़ दो
बनना है धनवान तो
राजनीति में कूद जा / (कवि: ब्रह्मजीत गौतम)
द्वेष सभी अब भूलकर
ज़रा निकट आओ प्रिये
जी ले दो पल प्यार के / (कवि: महावीर उत्तरांचली)
अधिकांश कवियों ने प्रथम भेद (शुद्ध जनक छंद) और चतुर्थ भेद (घन जनक छंद) में ही काव्य साधना की है। तृतीय भेद (उत्तर जनक छंद) में स्वामी श्यामानन्द सरस्वती और उनके शिष्यों ने काफ़ी जनक छंद रचे हैं। द्वितीय भेद (पूर्व जनक छंद) व पञ्चम भेद (सरल जनक छंद) काफ़ी कम मात्रा में रचे गए हैं। पूर्व जनक छंद रचने में ओमशरण आर्य “चंचल” जी ने सफलता पाई है।दुर्भाग्यवश ‘मेकलसुता’ पत्रिका में आर्य जी ने अपने उपनाम ‘चंचल’ के आधार पर इन्हें ‘चंचल त्रिपदा’ नाम दिया है जो कि अनुचित है। यह पूर्व जनक छंद का ही रूप है।
इधर पाँच वर्ष पूर्व 2012 ईस्वी में स्वामी श्यामानन्द जी की दो पुस्तकें ‘जीवन नाम प्रवाह का’ और ‘मैं कितने जीवन जिया’ आईं थीं। हैरानी की बात है कि स्वामी जी ने इन्हें उल्लाला छंद और नवचण्डिका छंद नाम दिए हैं। जबकि उनकी दोनों पुस्तकों में रचे तमाम छंद जनक छंद के ६४ रूपों और पांच भेदों के अंतर्गत ही आते हैं। इसका मूल कारण यह है कि स्वामी जी स्वयं जनक छंद के सिद्धहस्त कवि रहे हैं। एक दशक तक लगातार अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके जनक छंद प्रकाशित हैं। स्वामी जी यदि उल्लाला और नव चण्डिका छन्द को पांच चरणों का कर देते तो शायद ये उनका नवीन प्रयोग होता। जो कि साहित्य में मान्य होता। अतः त्रिपदिक होने के कारण यह दोनों पुस्तकें जनक छंद की धरोहर ही मानी जाएँगी।
***
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY