दो पांखी
टूटे कुछ सुमन पड़े हैं-
उर की डाली से मेरे!
किंजल्क- जाल है बिखरा,
उड़ता पराग है रूखा!
नि: स्तेज हुये मुरझये!
है कौंध रहा मन बरबस,
क्योंकर जीवन लीला दी?
अवसाद- सिक्त जीवन में,
बस, लगते कुछ पल अपने।
सुख- दुख के आलोड़न में,
है शून्य पसर गया इक।
अब मन के भाव- क्षितिज पर-
अनचाहे उड़ते रहते-
दो पांखी 'हार', 'जीवन' के!
पद्मा
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