Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दो पांखी

 

दो पांखी


टूटे कुछ सुमन पड़े हैं-

उर की डाली से मेरे!

किंजल्क- जाल है बिखरा,

उड़ता पराग है रूखा!

नि: स्तेज हुये मुरझये!

है कौंध रहा मन बरबस,

क्योंकर जीवन लीला दी?


अवसाद- सिक्‍त जीवन में,

बस, लगते कुछ पल अपने।

सुख- दुख के आलोड़न में,

है शून्य पसर गया इक।

अब मन के भाव- क्षितिज पर-

अनचाहे उड़ते रहते-

दो पांखी 'हार', 'जीवन' के!


पद्मा

 


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