Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुझे पुकार लो!

 

मुझे पुकार लो!


विक्षिप्त सी हो गयी धरा,

खल, पातकी- बावाल से!

अब तो मुझे पुकार लो-

प्रिय, बांसुरी के तान से!


है! मत जगाओ नींद से-

मद्‌- मत्त, सुरभित: नयन को!

श्वांस ना टूटे कहीं,

वीभत्स- पशु- झंकझोर से!


चीम्घाड़ है, चीत्कार भी,

आ्वांस भी नि:श्वास बन-

लो, चल पड़ी शमशान तक!

अब दर्प है, संघर्षण प्रबल!


अब रहा अवशेष क्या? 'मनु।

इस सृष्टि के आगार में?

तव मानवी- संसार में,

औ' मनुज के व्यवहार में?


करके बराबर अवनि को,

जब सींच लो सद्भाव से!

तुम अंकुरित निर्माण कर दो-

मनुष्यता में प्राण से!


ख्रेह- सिंचित दीप धर दो-

ज्योति- वंचित इस धरा पर;

वर्तिका संचार कर दो,

सौम्य मन- नीलाभ पर।


पद्मा

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