मुझे पुकार लो!
विक्षिप्त सी हो गयी धरा,
खल, पातकी- बावाल से!
अब तो मुझे पुकार लो-
प्रिय, बांसुरी के तान से!
है! मत जगाओ नींद से-
मद्- मत्त, सुरभित: नयन को!
श्वांस ना टूटे कहीं,
वीभत्स- पशु- झंकझोर से!
चीम्घाड़ है, चीत्कार भी,
आ्वांस भी नि:श्वास बन-
लो, चल पड़ी शमशान तक!
अब दर्प है, संघर्षण प्रबल!
अब रहा अवशेष क्या? 'मनु।
इस सृष्टि के आगार में?
तव मानवी- संसार में,
औ' मनुज के व्यवहार में?
करके बराबर अवनि को,
जब सींच लो सद्भाव से!
तुम अंकुरित निर्माण कर दो-
मनुष्यता में प्राण से!
ख्रेह- सिंचित दीप धर दो-
ज्योति- वंचित इस धरा पर;
वर्तिका संचार कर दो,
सौम्य मन- नीलाभ पर।
पद्मा
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