'सम्बोधन'
मेरे मन की पाँखों से-
निकले पराग के कण जो,
सब बिखर गए औचट में;
भोली मैं, समझ न पायी।
सुरभित भावों के छाये-
में भीगे कभी सहज थे,
उड़- उड़ कर हुये समाहित-
वायु के आगार में सब!
व्यापक , विशाल वसुधा पर,
सर्वस्व लुटाने वाले हैं-
देदीप्यमान रवि कर्मठ !
मुझ पर भी कुछ बरसा दो!
कृपा- दृष्टि डालो अब -
मेरे आँचल में भर दो,
दो- चार छिड़क दो पथ पर-
किरणें, सम्बोधन पा लूँ।
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