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आज की शिक्षा प्रणाली मे खोता बचपन

 

नागेन्द्र कुमार

सरकारी नीतियों ने सरकारी स्कूल, उसके अध्यापकों की हालत ही ऐसा कर दी कि जनसंख्या के इतने दबाव के बावजूद वहां बच्चों ने आना बंद कर दिया। आज भी निन्यान्नबे प्रतिशत बच्चे गरीब, मजदूर समुदायों के ही इन स्कूलों में पढ़ते हैं।ज्यादातर शिक्षक विद्यालय में अनुशासन के सही अर्थों से अनभिज्ञ होते हैं। उन्हें यह कहते सुना जा सकता है कि बिना डर के बच्चे पढ़ेंगे कैसे! और खेलने से क्या होता है?
बच्चों की परीक्षाएं नजदीक आ रही हैं और उनमें बढ़ता तनाव भी बढ़ रहा है। यह वाकई ‘बस्ते का बोझ’ है या इसके दूसरे कारण हैं। जैसे- अंगरेजी माध्यम, परीक्षा प्रणाली सहित पूरी क्रूर शिक्षा व्यवस्था और डार्विन के शब्दों में कहा जाए तो योग्यतम का जीवित रहने की कश-म-कश उर्फ अंतिम चुनाव। यह चाहे आइआइटी, चिकित्सा, कानून, प्रबंधन के अच्छे कॉलेजों में प्रवेश हो या फिर नौकरियां। अकेले कोटा शहर में पिछले एक वर्ष में दो दर्जन से अधिक आत्महत्याओं ने इस बहस को फिर जिंदा कर दिया है कि पढ़ाई का बोझ कैसे कम किया जाए, जिससे हमारी मासूम पीढ़ी ऐसा कोई आत्मघाती कदम न उठाए। वाकई दशकों से लगातार रिश्ते घाव की तरह बहस जारी है। इधर दिल्ली सरकार ने शिक्षा में सुधार के लिए कुछ कदम उठाए हैं तो केंद्र सरकार ने पूर्व केबिनट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है, जो शिक्षा के सभी पहलुओं पर विचार करेगी।
दरअसल, 1992 में जब से प्रोफेसर यशपाल समिति ने अपनी रिपोर्ट में ‘बस्ते का बोझ’ की बात उठाई तब से हर मंच पर हर आदमी को मानो इस मसले पर बोलने का अधिकार मिल गया है। यही वह दौर है जब शिक्षा का जो निजीकरण 1980 के मध्य में शुरू हुआ था, उसे गुणवत्ता आदि के नाम पर बहुत तेजी से बढ़ाया गया। हजारों नुक्स निकाले गए सरकारी स्कूलों में, पाठ्यक्रम में, परीक्षा प्रणाली में और देखते-देखते हर खाली जगह निजी स्कूलों के हवाले होती गई। कुछ जनसंख्या का दबाव, कुछ भूमंडलीकरण की हवा और शेष सरकारी वित्तीय कारण, जिन्हें गिनाते हुए सरकारी स्कूलों से पैर सिकोड़ने का नजरिया कि जहां आजादी के शुरू के दशकों में समान शिक्षा नब्बे प्रतिशत बच्चों को उपलब्ध थी, अब धीरे-धीरे घटकर पचास प्रतिशत के आसपास हो चुकी है। भला हो ग्रामीण भारत का, जिसकी बदौलत समानता का यह आंकड़ा कुछ तो तसल्ली देता है वर्ना महानगर, शहर, कस्बों का खाता-पीता वर्ग पूरी तरह निजी शिक्षा की तरफ मुड़ गया है। सविधान में समानता, समाजवाद की दुहाई देने वाली हर रंग की सरकारों और संसद का मौन चिंताजनक है।
आखिर हम आयोग या समितियां बनाते क्यों हैं? क्यों देश की जनता को झांसा दिया जाता है? दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में बने शिक्षा-आयोग 1964-66 की सिर्फ दो महत्त्वपूर्ण सिफारिशों को दोहराना यहां पर्याप्त रहेगा। पहली-सभी के लिए समान शिक्षा हो और दूसरी-न केवल स्कूली शिक्षा बल्कि उच्च शिक्षा भी भारतीय भाषाओं के माध्यम से दी जाए। रोग के लक्षण कोठारी जैसे शिक्षाविद् ने साठ के दशक में ही बहुत अच्छी तरह पहचान लिए थे, संसद ने विचार भी किया लेकिन पतनाला वहीं गिरा, जहां उसे गिरना था। देखा जाए तो ‘बस्ते का बोझ’ बढ़ने की शुरूआत भी तभी हुई। निजी स्कूल मुनाफे के लिए पहले अपना व्यवसाय, धंधा देखते हैं बाद में कुछ और। और धंधे के लिए सबसे मुफीद लगी अंगरेजी, केवल विषय के रूप में ही नहीं, नब्बे के इस दशक में पहले उसे छठी की बजाय प्रायमरी कक्षाओं से पढ़ाने की बात आगे बढ़ी और फिर 21वीं सदी शुरू होते-होते प्रायमरी में भी एक विषय के बजाय अंगरेजी ने माध्यम भाषा की जगह ले ली।
अंगरेजी का मोह सैम पित्रोदा और उसके बांकुरों ने ज्ञान आयोग, जैसे मोहक नारो में लपेटकर ऐसा प्रचारित किया कि सरकारी स्कूल बंजर होते गए। दिल्ली जैसे शहर में भी सरकार और नौकरशाह इस भाषा में बात करने लगे कि सरकारी स्कूलों के बंद करने से इतने अरब-खरब मिल जाएंगे और अध्यापकों की तनख्वाह और दूसरे खर्च कम होंगे सो अलग। गलती पूरी तरह उनकी भी नहीं थी। सरकारी नीतियों ने सरकारी स्कूल, उसके अध्यापकों की हालत ही ऐसा कर दी कि जनसंख्या के इतने दबाव के बावजूद वहां बच्चों ने आना बंद कर दिया। आज भी निन्यान्नबे प्रतिशत बच्चे गरीब, मजदूर समुदायों के ही इन स्कूलों में पढ़ते हैं।
हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समान शिक्षा के पक्ष में जो निर्णय दिया है क्या उसे दूसरे राज्य सरकारों को भी नहीं मानना चाहिए? याद दिला दें कि इस निर्णय के अनुसार सभी सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और शासन से जुड़े हर नागरिक को सरकारी स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य बनाया जाए। अभी तक तो इस मुद्दे पर चौतरफा चुप्पी है। संसद तो चलती ही बंद होने के लिए है।
‘बस्ते के बोझ’ की बुनियाद में शिक्षा का यही अंध, अनैतिक, अनियंत्रित निजीकरण है। अंगरेजी भाषा सीखने के दबाव के साथ निजी स्कूलों ने मध्यवर्ग की सुरसा इच्छाओं को भांपते हुए यह होड़ भी पैदा की कि उनके यहां ज्यादा विषय पढ़ाए जाते हैं। किसी ने जर्मन, फ्रांसीसी के आवरण में विदेशी नौकरियों का लालच दिया तो दूसरे नुक्कड़ स्कूलों ने जापानी, चीनी का। इन देशों के दूतावासों ने अपनी-अपनी संस्कृति, भाषा के राष्ट्रीय एजेंडे को बढ़ाते हुए भी बड़ी भूमिका निभाई या कई आज भी निभा रहे हैं। जर्मन भाषा के पक्ष में जर्मनी की प्रमुख का हाल ही में दिल्ली दौरा और नई सरकार के साथ तालमेल उसी की कड़ी है। केवल इतना ही नहीं, जिन विषयों को पढ़ाने की, कम उम्र बच्चों को जरूरत ही नहीं है, उनको भी बच्चों के बस्ते में ठूंस दिया गया है। दोहरा फायदा-बच्चों के अभिभावकों से और पैसा वसूल है। और ऊपर से ये आतंक, लालच कि हमारा स्कूल क्यों सबसे अच्छा है।
बिल्कुल फिटजी, नारायण, बंसल जैसी उन कोंचिग संस्थाओं की तर्ज पर कि अगर आप आइआइटी या दूसरी राष्ट्रीय परीक्षाओं में सफल होना चाहते हो तो बारहवीं की बजाय नवीं कक्षा से ही इन किताबों पर जुट जाइए। ऊपर से कुछ और भी कराटे, एबेकस, शतरंज या मंहगे खेलों का दबाव। इसमें सबसे ज्यादा कसूरवार हैं तो यह अमीर अंगरेजीदां वर्ग, जो खुद स्कूलों में जाकर यह शिकायत करता है कि आप बच्चों को होमवर्क कम देते हैं। पड़ोस का स्कूल तो इतनी मेहनत कराता है। स्कूल प्रबंधन को और क्या चाहिए? वे दो किताबें और लगा देते हैं। अफसोस कि कई बार पूरे साल इन किताबों को खोलने की फुरसत भी बच्चों को नहीं मिलती।
इन सब चक्कियों के बीच आखिर पिसा कौन? वे मासूूम बच्चे और बच्चियां, जिनकी आत्महत्या की खबरें शिक्षा व्यवस्था की दुनिया को हिलाने के लिए पर्याप्त हैं। प्रोफेसर यशपाल के ही शब्दों में, ‘आइआइटी आदि में न चुने जाने वाले तो पूरी उम्र हार महसूस करते ही हैं, जो चुने भी जाते हैं वे भी बहुत एकांगी व्यक्तित्व होते हैं।’
हिंदी पट्टी के अधिसंख्य बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रोफेसर यहां और भी बड़े गुनहगार नजर आते हैं। वे पुरस्कारों, अकादमियों, विश्वविद्यालयों, कालेजों के पद की राजनीति में तो दशकों से लिप्त हैं, स्कूलों-कॉलेजों में अपनी भाषा के पक्ष में वे आज तक न सामने आए, न अपनी भाषा के पक्षधर उन आंदोलनों के साथ खड़े हुए। शायद वे ज्यादा समझदार हैं कि अंगरेजी और इसी भारी बस्ते की बदौलत उनकी संततियां इस देश और उसकी समस्याओं से मुक्ति पाकर विदेश में चुपचाप जाकर बस सकती हैं।
हमारे समाज में शिक्षा की उलटबासियां भी अजीब हैं। साठ-सत्तर की उम्र छूता हुआ हर नागरिक अपने बचपन में पढ़ने के आनंद, अपनी भाषा, आजादी पर खूब मगन होता है लेकिन अपने आसपास इसकी रक्षा के लिए लड़ने को कतई तैयार नहीं है। क्या इन सबको पूरी व्यवस्था सहित इस अपराध से मुक्त किया जा सकता है?
याद कीजिये जितनी वकालत ज्ञान आयोग अंगरेजी के लिए की थी, उसी रफ्तार से भारत के शीर्ष संस्थान आइआइटी समेत दुनिया के नक्शे पर अपनी साख खोते जा रहे हैं। कारण-विदेशी भाषा में पढ़ाई, प्रशासन में हर रचनात्मकता को खत्म कर देती है। गांधी, टॉलस्टाय, न्यूगी से लेकर दुनिया भर के शिक्षाविद् बार-बार यह कहते रहे हैं। लेकिन सिर्फ भारत में बहस को बस्ते के बहाने किसी और दिशा में मोड़ दिया गया है। भारतीय राजनीति का तो यह दोष है ही।
हाल ही में, दिल्ली के कुछ शिक्षकों और बच्चों से बातचीत में भी इस बात की पुष्टि हुई। जहां सरकारी स्कूल के बच्चों ने बस्ते के बोझ की शिकायत उतने मुखर शब्दों में नहीं की जितनी महंगे निजी, अंगरेजीदां स्कूल के बच्चों ने। जाहिर है निजी स्कूलों ने अपनी कमीज ज्यादा सफेद चमकाने और बताने की होड़ में सरकारी स्कूलों के मुकाबले बस्ते का बोझ बिना किसी तर्क के ज्यादा बढ़ाया है। सबसे अच्छा पक्ष लगा- सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का एक स्वर से यह कहना कि पाठ्यक्रम कतई ज्यादा नहीं है। पूरे वर्ष में हम मजे से इसे पूरा कर सकते हैं, बशर्ते कि हमारा साठ प्रतिशत समय दूसरे फालतू कामों जैसे मतदाता सूची सोलह तरह के वजीफे के हिसाब-किताब, जनगणना, बच्चों के बैंक में खाते खुलवाने जैसे कामों में न लगाया जाए। बस्ते के बोझ के साथ अंगरेजी सीखने का दबाव भी शिक्षकों और बच्चों को ज्यादा तनाव में ला रहा है।
निजी स्कूलों की होड़ा-होड़ी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में भी अच्छी अंगरेजी बोलने के लिए ब्रिटेन की एक संस्था के साथ करार हुआ है। क्या कभी भारतीय भाषाओं, हिंदी समेत के लिए भी सत्ता को कोई चिंता हुई। अफसोस कि बस्ते के बोझ में इन पहलुओं को हर सरकार नजर अंदाज कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार द्वारा गठित सुब्रमण्यम समिति शिक्षा में अपनी भाषाओं के पक्ष को जरूर रेखांकित करेगी। 2014 में ‘संघ लोक सेवा आयोग’ की सिविल सेवा परीक्षा में अंगरेजी के अतिरिक्त प्रवेश के विरोध में पूर्व केबिनेट सचिव ने खुलकर भारतीय भाषाओं की वकालत की थी।
बस्ते के बोझ को लेकर दिल्ली की नई सरकार भी संवेदनशील लगती है। सरकारी स्कूलों को बढ़ाना, उनमें सुविधाओं को दुरस्त करना और शिक्षकों के पढ़ाने के अलावा होमवर्क को कम करने से निश्चित रूप से बेहतर माहौल बनेगा। अभिरुचि, क्षमता के हिसाब से कई किस्म के व्यावसायिक पाठ्यक्रम जैसे होटल, खेल, नाटक, फिल्म, बढ़ईगीरी, भवन निर्माण, इलेक्ट्रिीशियन, साहित्य की शुरुआत भी बस्ते के बोझ को आखिरकार कम ही करेगी।
प्रोजेक्ट, ट्यूशन आदि के बहाने निजी स्कूलों की उन अतिरिक्त, अवैज्ञानिक किताबों पर जरूर लगाम लगाने की जरूरत है। हां, पाठ्यक्रम को कम करने में भी समीक्षा में जरूर धैर्य से काम लेना होगा। सभी कक्षाओं में विषय की निरंतरता, समझ के सोपान और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तरों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। यह बहुत जल्दबाजी में नहीं हो सकता। पूरी पढ़ाई में सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष पढ़ने के आनंद को बच्चों में जगाए रखना होना चाहिए। परीक्षा पद्धतियों में सीबीएसइ और एनसीइआरटी ने मिलकर कुछ अच्छे कदम उठाए हैं।
एक विकल्प हर स्कूल में ऐसे पुस्कालयों को बढ़ाना भी है जहां विविध विषयों की किताबें, सीडी उपलब्ध हों और बच्चे मनमर्जी से वहां बैठ सकें। सारा ज्ञान बच्चे के बस्ते में ही सरकारें ठूंसना चाहती हैं? जबकि मुहावरा सब को पता है कि ‘मूर्खों का ही बस्ता सबसे ज्यादा भारी होता है।’ क्या इसका उल्टा भी उतना ही सच नहीं है?’

 

 

 

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