सवेरा अब होने को है
बस चंद पलो का इंतजार है
सूरज की लाल किरनें
जब धरा पर उतरेंगी
प्रभात की बेला में
हर ओर मेला सा लग जाएगा
पेड़-पौधे इतरायेंगे
अपने पत्तों को भी जगायेंगे
चिड़ियों का कलरव शुरू होगा
तितलियों का झुरमुठ प्रखर होगा
फूलों के बाजार सजे-धजे नजर आयेंगे
भौरे खरीदार परागों की बोलियां लगायेंगे
कुछ पलों तक इसी तरह का
शोर-शराबा रहेगा
और एक खास इंसान
एक तरफ बैठकर
बस इसे निहारता रहेगा
पहले उसका चेहरा झूम उठेगा
फिर उसकी आंखें नम पड़ जायेंगी
एक आवाज उसके मन के
अंदर से बाहर आकर कहेगी
कांश! ये छनध्पल मैं दोबारा
अपने शहर में देख पाता
पर हमारी जल्दी की
आगे बढ़ने की लालसा ने
हमे प्रकृति से नाता
तोड़ने पर विवश कर दिया है
और न जाने कब ये
हरा-भरा गांव भी
जहर उगलती मशीनी
इंसानों का शहर बन जाए
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