कान में ये उसने कौन सी बात बताई है ||
के धड़कनें चुप और चेहरा हवा हवाई है ||
सुनाया है फ़रमान मेरे क़त्ल का उसने ||
सुन लो कि आज मेरा वक़्त-ऐ-रिहाई है ||
जहनीयत तो चलो ;फिर भी कुछ ठहरी ||
मगर ये फ़लसफ़ा तो ,बस अंधी खाई है ||
वाज़िब ही था ,इस बस्ती का जलना अब ||
अरमानों ने, अपने किये की सज़ा पाई है ||
लकीरों से मेल, नहीं खाती तक़दीर मेरी ||
लिखा तो वस्ल था ,मगर बनी जुदाई है ||
मैं भी शामिल था अहले -जहां के साथ ||
मालूम न था कि मेरी अपनी रुसवाई है ||
कौन कहता है के पत्थर बेजान होते हैं||
हमसे पूछो ,इनसे चोट ,हमने खाई है ||
बड़े नादाँ हैं वो अदब-ऐ-जिक्र नहीं आता ||
बात आपस की ,उसने सरेआम चलाई है ||
नरेन्द्र सहरावत
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