काश ! कहीं एक बस्ती शमां -ओ -परवानों की हो !!
जहा दिन हो मेरी दास्ताँ का ,रात मेरे अफ़सानों की हो !!
जहा ज़ज़्बात कद्र , करते मिलें, ज़ज्बातों की !!
दिल , दिल के हो क़रीब चाहे दूरियां जमानों की हो !!
कोई फ़साद कौम -ओ - मजहब के दरमियाँ ना हो !!
जहा एक ही राहे -मंज़िल ,सारी गीता -कुरानों की हो !!
जहा इंसान हो , ना अमीर हो , ना गरीब हो !!
ना सियासत हो , ना पूछ सियासतदानों की हो !!
काशी में काबा हो , मशरीक से मगरीब मिले !!
ना जिक्र हो हिन्दूओ का , ना बात मुसलमानों की हो !!
ना ठीकरे हो शोहरत के , ना ढेर दौलत के हो !!
ना जिस्मों के सौदे हो , कुछ अज्मत इंसानों की हो !!
अल्लाह , ईश्वर एक ही झोपड़ी में बसते हो जहा !!
फिर मंदिर -मस्जिद , ना जरूरत इन दूकानों की हो !!
एक आइना हो , हर घर में ज़मीर की खातिर !!
ना हो बेईमानी , ना वाह -वाह बेईमानों की हो !!
नरेन्द्र सहरावत
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