(मोहन राकेश कृत नाटक ‘आधे-अधूरे’ के पात्र सावित्री के विशेष संदर्भ में)
परिवार समाज की इकाई है। उदारीकरण के दौर में परिवार का रूप तेज़ी से बदला हुआ दिखाई देता है। उसका आकार, आमदनी का ज़रिया, गतिमयता, उपलब्ध संचार और शिक्षा के सामान, आपसी संबंध एवं व्यवहार सब पर बाज़ार के दबाव और परिवर्तन का नशा छाया हुआ है। परंपरा को महत्वहीन और विश्वास को अर्थ शून्य माना जाने लगा है। भाई-बहन के रिश्ते में जो प्रेम होना चाहिए, वह नहीं दिखाई पड़ता। पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति समर्पण का मनोभाव कम हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप पारिवारिक संबंधों में मधुरता और सरसता के स्थान पर परस्पर कटुता, द्वंद्व तनाव और आक्रोश की स्थिति उत्पन्न हो रही है। पारिवारिक विघटन का कारण परिस्थितियों में जटिलता ही है। बाहर की सुख-सुविधाओं को देखकर मध्यवर्गीय परिवार इच्छाओं के जाल में इस तरह फँस जाते हैं कि उसकी सर्वाधिक प्रबल मनोकामना छोटी-छोटी इच्छाओं को पूरा करने में ही उलझ कर रह जाती है। परिस्थितियों के अनुरूप जिंदगी को मोड़ देने का परिणाम यह हुआ है कि व्यक्ति और भी मुसीबतों में फँसता चला जाता है और इससे छुटकारा पाने के लिए मनुष्य जिंदगी भर मारा-मारा फिरता रहता है। बाजारवादी संस्कृति में पारिवारिक जीवन का ढ़ाँचा बदलने लगा है। परिस्थितियों का दबाव इसके पीछे काम करता है। भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष आदर रहा है। यहाँ आचरण की पवित्रता को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसका जन्म सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था। लेकिन युग और स्थितियाँ बदलने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों का पतन भी होने लगा है। नैतिकता का संबंध मानव के चरित्र एवं निष्ठा के साथ होता है। दुनिया में बाजारवादी संस्कृति ने अपना जाल बिछा लिया है। फलस्वरूप परंपरागत नैतिक मूल्य टूट रहे हैं। बाजारवादी व्यवस्था में अर्थ ही समाज के विकास का आधार है, इसके अभाव में आदमी का अस्तित्व शून्य है। इस प्रकार की संस्कृति ने धन, पूँजी को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने के लिए विवश कर दिया। व्यक्ति का संबंध समाज से न होकर बाजार के साथ बन गया। लेकिन भरी भीड़ में वह एकाकीपन महसूस करने लगा। इसका घुसपैठ परंपरागत मूल्यों में परिवर्तन लाया और आधुनिकता बोध परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ने लगा।
अब संयुक्त परिवार मुश्किल से देखने को मिलता है। मनुष्य निजता चाहता है, इसलिए इसका आकार छोटा होने लगा और छोटे परिवार का उदय हुआ। समय बीतने के साथ ही यहाँ भी समस्याएँ उभरने लगी और इसका भी विखंडन शुरु हो गया। एकल और छोटे परिवारों में बच्चों की मधुर आवाज़ कम ही सुनने को मिलती है क्योंकि आज का एकाकी जीवन तनाव से प्रभावित है। घर की औरत पहले एक बेटी, माँ और पत्नी बनकर जी रही थी, घर के सारा काम करती थी, लेकिन समय में बदलाव आया। उदारीकरण ने औरत को घरेलू ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया। आखिरकार वह पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर उनके बराबर की और कभी-कभी उनसे भी बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने लगी। चूँकि बाज़ार ने उसे शक्ति दी है तो उस सत्ता का इस्तेमाल वह सफलतापूर्वक करने लगी। नारी को परंपरागत नारी से भिन्न एक नया चेहरा देने में उदारीकरण का ही हाथ है। अभयकुमार दूबे जैसे सरीखे विद्वान का इस सन्दर्भ में मानना है कि- “भूमंडलीकरण ने महिलाओं के लिए रोज़गार के नए अवसर मुहैया किए क्योंकि उसे नारी श्रम की ज़रूरत थी। इस चक्कर में औरत को कुछ आज़ादी और हैसियत मिली।” (संपा. राजेन्द्र यादव तथा अन्य ‘पितृसत्ता के नए रूप’, अभयकुमार दुबे, पृष्ठ-90)
घर में स्त्री के गृहस्थ रूप को बदलना भारतीय परिवेश में पूरे परिवार का ढाँचा बदलना है। आज की बाजारवादी संस्कृति में यदि स्त्री स्वावलम्बी है तो उसे पूरे जीवन का स्वरूप ही बदल जाता है। इसके मूल में उदारीकरण के बाद उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास है। मनुष्य का अकेलापन उपभोक्तवाद के समय में कामनाओं के निरंतर बढ़ने और उसकी पूर्ति न होने के कारण जन्म लेता है। आज नारी को समाज में आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहने की इच्छा बढ़ गई है, इस कारण से वह नौकरी भी करने लगी हैं। वह घर, परिवार तक सीमित न रहकर जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की कोशिश करती है। इसलिए स्वतंत्र जीवन जीने के बारे में सोचते वक्त घर परिवार से भी ज्यादा महत्व अपने कैरियर को देती है। उसके भीतर परंपरागत जीवन मूल्यों तथा आदर्शों के प्रति कोई आकर्षण नहीं बचा है। बाजार में कंपनियाँ भी अपने उत्पाद को बेचने के लिए नारी का इस्तेमाल करती हैं। बाजारवादी संस्कृति में विज्ञापन स्त्रियों की भूमिका का बखूबी इस्तेमाल कर रहा है। विज्ञापन से ज्ञात सामानों पर स्त्रियाँ सबसे ज्यादा ध्यान देती हैं। चाहे वह गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित वस्तु हो या सौंदर्य को बढ़ाने की वस्तु। इन्हें रूप-रंग, गुण, मूल्य आदि सभी रूपों में आकर्षक बनाकर स्त्रियों को उन पर मुग्ध रखने की क्षमता बाजार में है। प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी का मानना है कि ‘‘सौंदर्य की दुनिया जटिल है। जिस चमकीली सेक्सी स्त्री देह के बिना ग्लैमर ग्लैमर नहीं बन सकता, वही ग्लैमर उन्हें मार डालता है। ग्लैमर उनके चेहरे, उनकी त्वचा, उनके केश, उनकी नंगी देहों को सबके लिए चमकाता है, साफ सुथरा कर, सुगन्धित कर नये-नये परिधानों में नित्य सजा-धजा कर बेचता है।’’
(सुधीश पचौरी, ‘पापुलर कल्चर के विमर्श’, पृष्ठ-152)
स्त्री केन्द्रित पत्रिकाएँ सुन्दरता को प्राप्त करने के लिए स्त्रियों को उकसाने में बाजार के लिए कार्य करती रही हैं। सौंदर्य की पात्रता के सपने दिखाने वाली भाषा अक्सर इन पत्रिकाओं में छपी होती है। जैसे- ‘आप अपनी देह को फिर से नया आकार दे सकती हैं’, ‘आपकी झुर्रियाँ अब आपके नियंत्रण में’ आदि। औरतें इस प्रकार के विज्ञापनों पर बँध जाती हैं। दुनिया के ग्राहकों में सबसे ज्यादा संख्या स्त्रियों की होती है। भूमण्डलीकरण के इस कुप्रभाव को रेखांकित करते हुए अभय कुमार दुबे का कहना है कि ‘‘भूमंडलीकरण का दूसरा चरण ओटोमेशन, कंपियूटरीकरण और संचार क्रांति का था जिसके लिए उच्च शिक्षित और मध्य व उच्च मध्यवर्गीय औरतों की जरूरत पड़ी। औरत के सौंदर्य को उपभोक्ता क्रांति का केंद्र बनाने के लिए पश्चिम में पिट चुकी सौंदर्य प्रतियोगिताओं में नई जान डाल गयी और तीसरी दुनिया की औरतों को विशेष रूप से सुंदर घोषित कर दिया गया। प्रसाधन उद्योग और सौंदर्य उद्योग को मध्यवर्गीय लड़कियों और गृहिणियों के रूप में असंख्य नए उपभोक्ता मिल गए।’’ (संपा. राजेन्द्र यादव तथा अन्य ‘पितृसत्ता के नए रूप’, अभयकुमार दुबे, पृष्ठ-63)
बाजार ने स्त्री को आजीवन घेरने वाली विवाह रूपी संस्था का चतुराई से प्रयोग किया है और स्त्री के मन में विवाह के प्रति नकारात्मक भाव पैदा कर दिया है। वैवाहिक संस्था से अलग रहना हमारे सामाजिक माहौल में उचित कार्य नहीं है। आज वैवाहिक संस्था का महत्व घटा है। स्त्री का तो शोषण सदैव ही होता रहा है लेकिन बाजार ने उसकी स्थिति और भयावह कर दी है। बाजार ने स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाकर बाजार में उसकी मूल्य वृद्धि की और उसकी इच्छाओं को जला दिया। आधुनिक स्त्री विवाह जैसे बंधनों को तोड़ने की मानसिकता लेकर जी रही है क्योंकि वह हर जगह शोषण का शिकार बनती है। इस पर यही मन्तव्य छिपा हुआ है कि विवाह एक महिमामयी संस्था है जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर स्त्रियों का हर रूप से शोषण करती है और स्वावलम्बी स्त्रियों को अस्वीकार कर देती है। पुरुष अपनी यौनिक इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए किसी भी अपरिचित स्त्री को शिकार बना सकता है, फिर भी समाज उस पर उँगली नहीं उठायेगा, उसे दोष नहीं देगा, वरन् सारे दोष स्त्री पर ही आरोपित करेगा। अगर एक स्त्री अपनी यौनिक इच्छा को खुलकर व्यक्त करती है तो उसे वेश्या कहकर पुकारने में कोई नहीं हिचकता। आजकल स्त्री बाजार में बिकने वाली वस्तु बन चुकी है जिसे लोग मूल्य देकर क्रय करने के साथ ही उपभोग करते हैं तथा तृप्त हो जाने पर किसी पुराने सामान की तरह फेंक देते हैं। आजकल बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपना बाजार बनाने के लिए सुंदर स्त्रियों को काम में लगाती हैं। जीवनोपयोगी जो भी सामान बाजार में उपलब्ध होता है, उसके विज्ञापन के सामान के रूप में कंपनियाँ स्त्रियों को ही चुनती हैं ताकि उन स्त्रियों के सौंदर्य पर आकर्षित होकर ग्राहक विज्ञापन पर और सामान की उपयोगिता पर ध्यान रखें। मॉल संस्कृति ने भी स्त्रियों को अपनी ओर खींच रखा है और उससे मुक्त होने की कोशिश स्त्री कथापि नहीं कर पाती। मॉल में नित्योपयोगी सामान एक छत के नीचे इकट्ठे होते हैं। इन सबकी अलग-अलग दुकानें हैं जिनमें यौवनयुक्त स्त्री की जरूरत होती है। क्योंकि ग्राहकों को सबसे अधिक आकर्षित करने वाला सौंदर्य युवतियों में निहित है। वे स्त्रियों के उम्र में विशेष ध्यान रखते है। क्योंकि स्त्री सौंदर्य किसी विशेष उम्र तक ही अपनी तीव्रता के साथ दूसरों को सबसे अधिक आकर्षित कर सकता है- यही उनका विचार है। इसलिए एक निश्चित उम्र हो जाने पर स्त्री को उद्योग धंधे से निकाल दिया जाता है ।
‘आधे-अधूरे’ नाटक में हिन्दी के सशक्त नाटककार मोहन राकेश ने मध्यवर्गीय विसंगतियों के परिणामस्वरूप उभरकर आए पारिवारिक तनाव में सावित्री को सबसे प्रमुख भूमिका दी है। नाटक के अन्य पात्र उसके इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। महेन्द्रनाथ के घर-घुसरा होने के कारण सावित्री परिवार की देखभाल करती है और पूरा खर्च भी उठाती है। बेटे को नौकरी पर लगाने की कोशिश करने के साथ ही साथ पति के द्वारा तिरस्कृत मनोभाव को भी झेलती है। उसका कथन है- “यहाँ पर सब लोग समझते क्या है मुझे ? एक मशीन जोकि सबके लिए आटा पीसकर रात को दिन और दिन को रात करती रहती है?”(मोहन राकेश, आधे-अधूरे, 48)। आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण पति को अधूरा मानकर स्वेच्छानुसार वह नये-नये लोगों से संपर्क करती है। आर्थिक विपन्नता और मध्यवर्गीय परिवार की स्त्री होने की वजह से सावित्री ऐसी प्रवृत्तियाँ करने के लिए विवश हो जाती है। वह महत्वांकाक्षी है। आस-पास के लोग सारी सुविधाओं का भोग कर रहे हैं, वह भी उसका हिस्सा बनना चाहती है, अपने लिए समाज में जगह बनाना चाहती है और अलग-अलग पुरुषों के संपर्क में आती है। जिन संपन्न लोगों के साथ वह संपर्क करती थी, वही उसे धोखा दे जाता। आज की संस्कृति में संपन्न वर्ग स्त्रियों का शोषण करता है और उपयोग करने के बाद फेंक देता है। सावित्री भी इसका शिकार बन चुकी है। वह सुख भोगने और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऐसे लोगों के संपर्क में आती है। लेकिन उसकी इच्छा को कभी पूर्णता नहीं मिलती। हर कहीं से निराशा ही प्राप्त होती है और असुरक्षा का शिकार बनती है। जिस परिवार के लिए सावित्री इतना कुछ कर रही है वहाँ से अधूरापन पाना भटकन का प्रमुख कारण बन जाता है। डा0 नायक रूपसिंह के मतानुसार- ‘‘सावित्री आधुनिक परिवेश के बोझ की प्रतिक्रयाओं को झेलती एक भावनात्मक नहीं, यथार्थ दृष्टिकोण रखने वाली नारी है। इस नाटक में अक्सर नारी पात्र आर्थिक दृष्टि से झेलते हुए पात्रों को देखा जा सकता है। इसमें सावित्री की भी स्थितिगति वही है’’ (डा0 नायक रूपसिंह, मोहन राकेश के कथा साहित्य में परिवेश बोध की विकसित चेतना, पृष्ठ-237)
पूँजीपति वर्गों की स्वार्थता ने सावित्री जैसी स्त्रियों को दयनीय स्थिति से गुजरने के लिए मजबूर कर दिया। मध्यवर्गीय स्त्री के शोषण और भय पर इन पूँजीपति लोगों ने अपने अतृप्त साम्राज्य की स्थापना की। ‘आधे अधूरे’ में मध्यवर्गीय पारिवारिक जिंदगी की इस कड़ुवी सच्चाई का पर्दाफाश करने का प्रयास लेखक ने किया है। बाजारवादी संस्कृति में पारिवारिक जीवन का ढ़ाँचा बदलने लगा है। परिस्थितियों का दबाव इसके पीछे काम करता है। महेन्द्रनाथ के बेरोजगार आदमी होने के कारण परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ सावित्री के कंधे पर आ जाती है। इस बोझ के कारण दोनों के बीच में आपसी प्रेम और विश्वास कम हो जाता है जिसके कारण रिश्तों में दरार पैदा हो जाती है। इसका कुप्रभाव बच्चों के ऊपर भी पड़ता है और दिग्भ्रमित होकर अपना रास्ता स्वयं ढूँढ़ने लगते हैं। पूरा परिवार मूल्य विघटन से घिरा हुआ है। यहाँ महत्वाकांक्षा है, स्वार्थपरकता है और संवेदनाओं का अभाव भी है। इसलिए टूटन, त्रास और पारिवारिक विसंगतियाँ भी बढ़ने लगती हैं। सावित्री की महत्वाकांक्षा एवं आर्थिक स्वावलंबन से उपजी समस्याओं की वजह से पारिवारिक जीवन में विघटन आ जाता है। वास्तव में सावित्री की महत्वाकांक्षा नहीं, जिंदगी की दौड़ में उसके पीछे दौड़ने की व्यग्रता है। हर मध्यवर्गीय परिवार वालों की समस्या आज यही है। इसे उसका अति महत्वाकांक्षी होना नहीं कहा जा सकता है।
पति-पत्नी के रिश्तों में उलझन आज सामान्य बात बन गई है। सावित्री कमाती है, महेन्द्रनाथ घर में बैठकर खा रहा है जिससे दोनों की मनःस्थितियों में अंतर आ जाता है। सावित्री की कमाई पर जीने के कारण महेन्द्रनाथ कुंठित है। भारत में आजकल पति-पत्नी के प्रेमादर्श संबंध खोते हुए दिखाई देते हैं। दोनों के बीच कुंठा, घुटन, बेबसी मात्र रह गये हैं। पति-पत्नी का आपसी प्यार से भरा हुआ व्यवहार और संबंधों पर ही परिवार की शांति निर्भर है। पुराने जमाने में पत्नी-पति को देवता मानकर पूजा करती थी, चाहे वह भला हो या बुरा। आज पश्चिमी सभ्यता की ओर भारतवासियों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है । उब शिक्षा का जबरदस्त प्रचार-प्रसार होने के साथ-साथ रिश्ते भी कमजोर होते जा रहे हैं। घर के सदस्य एक ही छत के नीचे होकर भी स्वयं अलग महसूस करते हैं। सावित्री के परिवार वालों की हालत यही है। बच्चों को माता-पिता के प्रति कोई लगाव नहीं है और घर के तनाव से वे ऊब चुके हैं। इस संवेदनशून्यता की वजह से परिवार के सारे सदस्य अपने-अपने में डूबे रहते हैं। बच्चे मनमानी जिंदगी जी रहे हैं। लड़का अशोक आवारा बन जाता है, छोटी लड़की किन्नी बदतमीज हो जाती है और बड़ी लड़की बिन्नी किसी के साथ भाग जाती है। माता-पिता का टूटन पूरे परिवार को तोड़ देता है। सावित्री परिवार के अधूरेपन के कारण दूसरों में पूर्णता की तलाश करती है।
उपभोक्तवादी संस्कृति में सौंदर्य की वजह से महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर ज्यादा हैं। सावित्री को इसी वजह से काम मिला है, लेकिन अशोक को काम दिलवाने के लिए बड़े-बड़े लोगों के पैर पकड़ना पड़ता है। यही बाजारू संस्कृति की विशेषता है। सावित्री सिंघानिया के संपर्क में आकर कुछ कमाती है। सिंघानिया उसके सौंदर्य की प्रशंसा करता रहता है, वह सिर्फ सावित्री को अपने उद्योगों में नियुक्त करना चाहता है। उसके सौंदर्य पर सिंघानिया की नजर है। लेकिन सावित्री को यह काम करना मजबूरी है। उसकी आवश्यकताएँ कभी भी पूर्ण नहीं होती। वह अपने परिवार के विकास के प्रति चिंतित है। बच्चों के भविष्य को संभालना चाहती है। इनकी स्थिति उच्च नहीं है, किंतु इस बाजारू संस्कृति से तालमेल रखकर जीना है, लक्ष्यों को पूरा करना है, इसी कारण से द्वंद्व बढ़ती जा रही है। पुरुष सत्तात्मक समाज में पुरुष एक से अधिक स्त्रियों के साथ संबंध रख सकता है, लेकिन स्त्री के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। दुनिया की सारी बुराइयाँ, कलंक, दोष आदि नारी के ऊपर मढ़े जाते हैं, पुरुष पर नहीं। अगर विवाह के बाद उसने अन्य पुरुष के साथ संबंध रखा तो अनर्थ हो जाता है। लेकिन वैयक्तिक मूल्य और सामाजिक मूल्यों के टकराहट के बीच फँस गये मध्यवर्गीय नारी को प्रभावित करने वाले बाह्य तत्त्व अर्थात् बाजारू संस्कृति के दबाव को भी देखना चाहिए। इस संस्कृति में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, अस्मिता के लिए आजकल ये सारी बातें सामान्य बन गयी है। मूल्य की विकृतियों तथा अनैतिकताओं को नजरअंदाज करके अपने बिखरते परिवार को बाँधने के लिए सावित्री यह सब करती है। पर इसमें एक बार फिसलने के बाद कभी उससे अपने आपको सँभाल नहीं पाती। सावित्री जीवन की दौड़ में दम घुटकर जीने के लिए अभिशप्त नारी है। उदारीकरण के दौर में मध्यवर्गीय परिवार वाले न तो अल्प व्यय करते हुए जीवन व्यतीत कर सकते हैं, न ही अधिक व्यय करते हुए। इसके बावजूद भी वे समाज में प्रतिष्ठा बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए वह उच्चवर्ग के करीब आ जाते हैं। समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए, पैसा कमाने के लिए सम्मान को खो देना आज मामूली बात बन गयी है। लेकिन सावित्री भौतिक सुविधा के लिए या धन की लालच के लिए नहीं, बल्कि परिवार के हित के लिए उच्चवर्ग के करीब आ जाती है। यही बाजारू संस्कृती की विशेषता है। इस परिवेश के अनुरूप रूपायित मध्यवर्गीय परिवार की नारी पात्र सावित्री में इन सारी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। बाज़ारवाद के परिवेश में स्त्री की क्या स्थिति है, इसे पाठकों के सामने उजागर कर लाने का प्रयास राकेश जी ने किया है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1 मोहन राकेश, 'आधे-अधूरे', (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 1969)
2 नायक रूपसिंह, 'मोहन राकेश के कथा साहित्य में परिवेश बोध की विकसित चेतना' (अलका प्रकाशन, कानपूर, संस्करण- 2012)
3 सुधीश पचौरी, 'पॉपुलर कल्चर के विमर्श' (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2011)
4 राजेन्द्र यादव तथा अन्य (सं.पा),'पितृसत्ता के नए रूप',(राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003)
नवमी एम.
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