Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बोला सुभाष

 

यहाँ देश धर्म करते करते, मैं चलते चलते ठहर गया,
भारत को एक करते करते, मैं ही टुकड़ों में बिखर गया,
अरे मेरा भी इक जीना था, बहता जो खून पसीना था,
इस धरती की सेवा करते, बहते बहते बस निकल गया॥

जो निकल गया सो निकल गया, इस आज़ादी की राहों में,
उसकी सोचो जो तेरी रगों में, बहता बहता ही सूख गया,
अब जाग और पहचान मुझे, हे देशभक्त, क्या पता तुम्हें?
बोला सुभाष, लड़ते लड़ते इस धरा से कब मैं चला गया?

इस धरती माँ के आँचल में, मैं तो कल ही था गुजर गया,
अब भूल मुझे बस आगे बढ, भविष्य बना ले अब उज्वल,
मुझको तो कुछ गद्दारों ने, था इस गुमनामी में ला पटका
दुःख तो बस इतना है साथी, तू तो खुद को भी भूल गया॥

जाग मुसाफिर जाग, ये तेरा अँधियारा भी गुजर गया,
अब खोल डाल गाँधी की पट्टा, दशकों से जो बंधा हुया,
आजाद, विस्मिल और भगत के बलिदानों को भूल गया,
भूल गया दुर्गा भाभी को और सावरकर को भूल गया॥

भूल गया तू धर्मवीर वंदा वैरागी, महाराणा प्रताप को,
वीर शिवा के वंशज, गुरु गोविन्द सिंह को भूल गया,
भूल गया चन्द्रगुप्त की गरिमा और वीरता भूल गया,
तप्त रक्त के धारक साथी खुद को क्यूँ अब भूल गया?

तू किन सपनों के धोखे में, अब आलस्य में है ध्वस्त पड़ा,
पहचाना स्वयं को अब तक, या यूँ ही किसी से बिदक गया,
कर्तव्यज्ञान हो गया हो अब, तो कर्मक्षेत्र सम्मुख है पडा,
बोला सुभाष हे कर्मवीर, आज तू अपनी क्षमता भूल गया?

बोला सुभाष हे भरतवीर, तू अपनी माँ को ही भूल गया?

 

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