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हमऊं देऊ

 

नीरजा द्विवेदी

 

 

 

एक लकड़हारा था. वह रोज जंगल में लकड़ी काटने जाता था और बाद में उसे बेचकर अपना और अपने बेटे का पेट पालता था.
एक दिन उसका बेटा ज़िद पकड़ गया कि-
" बापू ! मैं भी आपके साथ जाऊंगा”.
लकड़हारे ने समझाया--
” मैं तो जंगल में जाता हूं. वहां न कुछ खाने को मिलेगा न पानी पीने को मिलेगा. लौटने में शाम हो जायेगी.”
लड़का ज़िद पकड़ गया--
" बापू! मैं तो आपके साथ चलूंगा. मैं ज़िद नहीं करूंगा.”
जब लड़का किसी तरह नहीं माना तो लकड़हारा उसे लेकर जंगल में लकड़ी काटने चल दिया. दोपहर तक तो लकड़हारा लकड़ी काटता रहा और बच्चा चुपचाप उसे काम करते देखता रहा पर दोपहर बाद वह शान्त न रह सका.
वह बोला--
" बापू मुझे तो बहुत जोर की प्यास लगी है, भूख भी लगी है.”
लकड़हारे ने कहा--
" मैने तुम्हें साथ चलने को मना किया था. यहां तो कुछ मिलेगा नहीं अब तुम चुपचाप बैठे रहो.”
लड़का कुछ समय तक चुप रहा किन्तु थोड़े समय के बाद खाने और पानी पीने के लिये रोने लगा. हार कर लकड़हारे को काम छोड़ कर उठना पड़ा. उसने एक पेड़ पर चढ़ कर चारों ओर देखा कि कहीं खाने- पीने का जुगाड़ हो जाये. उसे दूर पर एक झोपड़ी दिखाई दी जहां से धुआं निकल रहा था. लकड़हारे ने चैन की सांस ली कि अब खाने- पीने का कुछ न कुछ प्रबन्ध हो जायेगा. वह शीघ्रता से अपने बेटे का हाथ पकड़ कर उस दिशा की ओर चल दिया. झोपड़ी के समीप पहुंचकर उसने बाहर से आवाज़ लगाई--
" कोई है, क्या अन्दर कोई है?”
कई बार आवाज़ देने पर भी किसी ने उत्तर नहीं दिया तो उसने दरवाज़े को खटखटाया. दरवाज़ा एक दम से खुल गया. लकड़हारा आवाज़ देते हुए अन्दर घुसा. सामने चूल्हे पर दूध पक रहा था और पास में चावल और चीनी रक्खी थी. अन्दर उसे कोई नहीं दिखा तो उसने मन में सोचा-
" होगा किसी का घर. इस समय यहां कोई नहीं है तो न सही, मैं पहले खीर बना कर पेट पूजा का प्रबन्ध कर लेता हूं. उसने फ़टाफ़ट चावल और चीनी दूध में डालकर खीर बना ली. पास में थाली रक्खी थीं. उसने थाली में खीर परोस कर ठन्डा होने रख दी. वे बाप बेटे खीर खाते इसके पहले ही उन्हें दरवाज़े पर किसी के आने की आहट सुनाई दी. डर के मारे लकड़हारे ने अपने बच्चे का हाथ पकड़ा और तिदरी ( कमरा) में रक्खे हुए बड़े से कुठले ( बड़ा मिट्टी का बर्तन जिसमें अनाज रक्खा जाता है और उसमें नीचे एक छेद होता है जहां से अनाज निकालते हैं), मे घुस कर बैठ गया. इतने में एक शेर अन्दर आया. उसने खीर बनी देखी तो चौंक पड़ा. उसने आवाज़ लगाई--
" यहां कौन है? खीर किसने बनाई”.
लकड़हारा डर के मारे चुप बैठा रहा और उसने कोई उत्तर न दिया. शेर सब कमरों में यहां तक कि छत पर भी देख आया. जब उसे कोई नहीं दिखाई दिया तो उसने सोचा कि - "चलो पहले खीर खा ली जाये. बड़ी तेज भूख लगी है.”
जैसे ही शेर ने एक कौर खीर मुंह में रक्खी कि लकड़हारे का लड़का धीरे से फ़ुसफ़ुसा कर बोला--
" बापू खीर तुमने बनाई और खा शेर रहा है. मै उससे खीर मांगूंगा”.
लकड़हारा बोला--
" चुप-चुप. अरे ऐसा गजब न करना. शेर खीर के साथ ही हम दोनों को भी खा जायेगा. चुपचाप से बैठे रहो.”
बच्चा कुछ क्षण चुप रहा पर उससे चुप न रहा गया. जोर से चिल्ला कर बोला--
" हमऊं देऊ ”
शेर ने चौंक कर देखा, कुछ समझ न आया तो फिर से एक ग्रास खीर का मुंह मे रक्खा. बच्चा फिर जोर से बोला-
" हमऊं देऊ”.
शेर उठ बैठा और फिर से सारे घर की तलाशी लेने लगा. ऊपर- नीचे कहीं भी उसे कोई नहीं दिखाई दिया तो फिर से खीर खाने बैठ गया. बच्चा उसे खीर खाते देख कर फिर जोर से चिल्लाया--
" हमऊं ऊं देऊ”.” हमऊं देऊ”.
अब क्या था शेर डर गया और तेजी से उठ कर भागने लगा. रास्ते में उसे एक बन्दर मिला. उसने पूछा--
" शेर मामा, शेर मामा! तुम ऐसे कैसे दुम दबाकर भागे जा रहे हो? तुम तो जंगल के राजा हो, क्या हो गया जो तुम डर गये.”
शेर ने रुक कर गहरी सांस ली और सहम कर बोला--
" क्या बताऊं भानजे, मेरे घर में ’हमऊं देऊ’ घुस आया है."
बन्दर बोला--" बस इतनी सी बात है, हमऊं देऊ को तो मैं चुटकी में भगा दूंगा.”
शेर प्रसन्न होकर बोला--" क्या सचमुच तुम हमऊं देऊ को भगा दोगे”?
बन्दर गर्व से बोला--" और नहीं तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं.”
शेर ने आश्चर्य से बन्दर की ओर देखा और विनती करते हुए बोला--
" तुम्हारी बहुत कृपा होगी यदि तुम शीघ्रता से हमऊं देऊ को मेरे घर से निकाल दोगे”.
बन्दर ने कहा--" हमऊं देऊ को तो मैं निकाल दूंगा पर एक शर्त है कि तुम अपनी पूंछ मेरी पूंछ के साथ बांध लो”.
शेर ने उत्तर दिया--" यह कौन कठिन है? चलो हम दोनों पूंछ अभी बांध लेते हैं”.
शेर और बन्दर पूंछ एक साथ बांध कर शेर की झोपड़ी की ओर चल दिये. वहां पहुंचकर बन्दर ने शेर से एक कपड़ा मांगा और उसे पूंछ पर लपेट लिया. अब गंगाजल में पूंछ डुबोकर वह कमरे में छिड़कने लगा और साथ मे कहता जाता--
" निकल हमऊं देऊ”, ”निकल हमऊं देऊ”, "निकल हमऊं देऊ”.
एक -एक कर हर कमरे, आंगन, छत सभी जगह बन्दर ने गंगाजल छिड़क दिया.
शेर बोला-
” भानजे! एक जगह रह गई है, ज़रा कुठले में से भी हमऊं देऊ को निकाल दो.”
बन्दर खुश होकर बोला--
" हां, हां क्यों नहीं?” उसने शीघ्रता से पूंछ गंगाजल में डुबोई और कुठले के छेद में डालकर बोला--
" निकल हमऊं देऊ". छेद में पूंछ गई ही थी कि बच्चे ने आव देखा न ताव, खट से अपने दोनों हाथ से पूंछ जकड़ कर पकड़ ली. लकड़हारे ने भी अपने बेटे का साथ देने को पूंछ को कस कर पकड़ लिया. अब क्या था शेर और बन्दर अपनी पूंछों को बाहर निकालने के लिये दम लगाने लगे और लकड़हारा व उसका लड़का उनकी पूंछों को अन्दर की ओर खींचने लगे. ज़ोर से रस्साकशी होने लगी. अन्दर- बाहर, अन्दर- बाहर की खींचातानी में शेर और बन्दर की पूंछ उखड़ गई. अब तो वे बेतहाशा भागने लगे. भागते- भागते बहुत दूर जाकर उन्होंने दम ली तो बन्दर शेर से बोला--
" शेर मामा! तुमने तो गजब कर दिया. हमऊं देऊ होता तो मैं निकाल देता, तुम्हारे घर में तो ’पूंछ उखाड़’ घुसा बैठा था. हम तो कहीं के न रहे. तुम धन्य हो, तुमने अपनी पूंछ उखड़्वाई साथ ही मेरी भी उखड़वा दी.”
शेर अपना घर ही नहीं जंगल भी छोड़कर दूर चला गया और लकड़हारा अपने बेटे के साथ वहां आराम से रहने लगा.
’कहानी खतम पैसा हजम’.

 

 

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