फ़रवरी के माह में
बढ़ गई ऐसी गलन
दिन में न पता चले
रात है या कि दिन
छिपी हुई धूप है
धुआं धुआं हुआ गगन
अनमनी बनी पवन
छू रही कोहरे का तन
धुन्ध में जा छिपी
लजा रही रवि किरन
प्राणिमात्र खोजते
खो गयी उसकी तपन
बादलों में घिर गये
ये धरा और गगन
प्रकॄति थरथरा रही
कांपता है जन विजन
तुषार ऐसे गिर रहा
हो रहा है ये भ्रम
प्रकॄति ज्यूं सिसक रही
बहा रही अश्रु कण
सूर्य ऐसे छिप गया
चला गया सुदूर वन
कोहरे से घिर गया
जैसे हो पडा़ कफन
शीत की लहर उठी
ठिठुर गया तन बदन
आग के अलाव पर
थरथरा रहे हैं जन
बादलों के बीच से
निकल पडी़ जब किरन
निआगरा-प्रपात का
जैसे हो जाय दर्शन
सूर्य के प्रकाश ने
भर दिया सुनहरा रंग
प्रकॄति मुस्कुरा उठी
मन बजाये जल तरंग
शीत ऋतु ने मुझे
दिखा दिये ऐसे रंग
लेखनी मचल उठी
बन गये नये छ्न्द
नीरजा द्विवेदी
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