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स्मृति-मन्जूषा

 

लेखिका- नीरजा द्विवेदी,
प्रकाशक- मनसा पब्लिकेशन्स
२/२५६, विरामखंड, गोमतीनगर
लखनऊ
प्रथम संस्करण
मूल्य- १७५ रुपये. एच. बी
१४५ रुपये. पी. बी.

नीरजा द्विवेदी की नई पुस्तक "स्मृति- मन्जूषा”- उनकी लेखन यात्रा का एक और पड़ाव है. १६६ पृष्ठों में कसी- गठी पुस्तक में नीरजा द्विवेदी ने अपने प्रवास के दौरान यूरोप, अमेरिका, इंगलैन्ड के अनेक शहरों में जो समय बिताया, उन यादों को "स्मृति- मन्जूषा” के रूप में एक बड़े फ़लक पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. स्मृतियां बहुत निजी हैं. बहुत व्यक्तिगत दायरे में घटित हैं. लेखों के पात्र बहुत निजी, पारिवारिक, अपने बच्चे, भाई-बहिन, चचेरे- मौसेरे, दूर के रिश्तेदार, रिश्तेदारों के रिश्तेदार, मित्र और मित्रों के मित्र हैं. ५१ लेखों में निबद्ध पुस्तक की हर कहानी का ताना- बाना उन्हीं पात्रों एवं घटनाओं के इर्द- गिर्द घूमता है. लेकिन उसकी प्रासंगिकता सर्वव्यापी है. सबसे जुड़ी है. प्रवासी भारतीयों का अपना एक संसार है. उनकी जीने की अपनी एक शैली है. लाखों नहीं करोड़ों की आबादी विदेशों में प्रवासी भारतीय के रूप में वहां की ज़मीन पर बसी है. कहीं पहली पीढ़ी है कहीं दूसरी या तीसरी पीढ़ी है. वहां के होकर वहां का न होना, बच्चों को वहां रखकर, उन्हें वहां के प्रभावों से बचाये रखने का प्रयत्न करना, भारत से दूर उन्हें भारतीय बनाये रखना, अपनी संस्कृति और विरासत को बचाये रखने की ललक, उनमें हम सबसे कहीं अधिक है. होली हो, दीवाली हो, जन्मदिन हो, बेबी शौवर हो, भारतीय परिवार एकत्र होते हैं. परिवार से दूर भारतीय परिवार एक बड़ा सपोर्ट सिस्टम हैं. ’बसन्त ऋतु’, ’ग्लूमी वेदर’, ’मिशिगन लेक की सुन्दरता’, ’अटलान्टा की प्रातः’ जैसे अनेकों लेखों में वहां के भौगोलिक सौन्दर्य को अपनी आंखों में समेट कर लेखिका ने अपनी कलम से पुस्तक में उतारा है, तो ’घरों की सुरक्षा व्यवस्था, विदेशियों के प्रति व्यवहार, काले लोगों की जीवन शैली, सोशल सीक्योरिटी, ट्रैफ़िक नियमों का पालन’ जैसे शीर्षक के अन्तर्गत वहां का अनुकरणीय सामाजिक व्यवस्था एवं कानून व्यवस्था- दण्ड व्यवस्था की सराहना की है. लेखिका स्वयं लिखती हैं- " फ़िल्मों एवं टी. वी. सीरियल के माध्यम से हम पाश्चात्य परिधानों एवं विदेश की वासनात्मक जीवन शैली से तो परिचत हो चुके हैं परन्तु विदेशों की जीवन शैली में अपने कार्य के प्रति अनन्य समर्पण, श्रम का महत्व, बच्चों के प्रति ममत्व, विकलांगों के प्रति स्नेह, सफ़ाई व्यवस्था, यातायात के नियमों का कठोर पालन, किसी कार्य को छोटा न समझना, बच्चों को स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बनाना, ईमानदारी, मानवता की भावना, सम्वेदनायें हमारे अपने देश से कहीं अधिक हैं." इन संस्मरणों को लिखने का उद्देश्य लेखिका मानती हैं कि हमारे देश के बच्चे आत्म- मन्थन करें.
वहां की जमीं पर रचे- बसे भारतीय, जब देश में आने की, वापसी की सोचते भी हैं तो अपेक्षाकृत हमारी कमज़ोर, भ्रष्ट सामाजिक- कानूनी व्यवस्था उन्हें निरुत्साहित करती है. कई बार वहां रहना उनकी मजबूरी हो जाती है. कई बार उन्हें इस त्रिशंकु जीवन में अवसाद, हताशा, निराशा से गुज़रना पड़ता है.
वहां की जीवन शैली के सद्गुणों को यदि प्रवासी भारतीय अपनाते हैं और वो भारत में भी हमारी जीवन शैली में उतर आये तो कितना बेहतर हो. लेखिका का यह प्रयास ही अभिप्रेत रहा और उनके चरित्र, पात्र, घटनायें निजी न होकर समाज के हो गये.

डा० मधु चतुर्वेदी
१/१७३, विजय खंड, गोमतीनगर
लखनऊ

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