Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इन्सानियत के वाकये दुशवार हो गये

 

इन्सानियत के वाकये दुशवार हो गये
ज़ज्बात ही दिल से जुदा सरकार हो गये

कब तक रखेंगें हम भला इनको सहेज कर
रिश्ते हमारे शाम का अखबार हो गये

हमने किये जो काम उन्हें फर्ज कह दिया
तुमने किये तो यार वो उपकार हो गये

कांटे मिलें या फूल क्या पता है राह में
चल साथ जब तुमने कहा तैयार हो गये

ढूंढा किये जिसको मिला हमको कहीं नहीं
आंखें करी जो बन्द तो दीदार हो गये

रौंदा जिसे भी दिल किया जब थे गुरूर में
बदला समय तो देखिये लाचार हो गये

कल तक लुटाते जान थे हम जिस उसूल पर
लगने लगा क्यूं आज वो बेकार हो गये

नीरज’ करी जो प्यार की बातें कभी कहीं
सोचा सभी ने हाय हम बीमार हो 

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