१) आज रुंधा क्यों कंठ वही ,सुर प्रेम गीत कल गाता था ?
हरा भरा जीवन दिखलाती ,लाल हुई क्यों धरा वही ?
भयहीन हो तारो को तकते, वह नैन शून्य में डूब रहे,
जिन हाथों में था अमृत कल, क्यों करा रहे विषपान वही ?
२) क्या विवश हुआ मानव भुला, मानवता का मूल्य कही ?
किस क्षण ह्रदय स्वीकार किया, अन्याय की इन जंजीरों को ?
चीत्कार कर रहे अंतर मन् ,निष्फल हो कब शांत हुए ?
क्यों ऊष्ण ह्रदय की ज्योति बुझ, मिटा रही आत्म सम्मानों को ?
3) कोई और नहीं ये मैं ही हूँ,तुम में भी खुद को देख रहा,
पी जीवन मस्ती की हाला, क्षण भंगुर विष का पान किया,
दया ,धर्म सब छोड़ चूका और लिया ह्रदय में स्वार्थ छिपा,
पथ भूले मन् के सपनो का, साकार रूप निर्माण किया !
4) अन्याय व अत्याचार हुए, मैं बन कायर चुपचाप रहा ,
पशु बन गए मानव को ,और बना बलबान दिया,
लापरवाह ,मद- मस्त हुआ मन् ,ले मुझे पतन की ओर चला,
स्वार्थ विवश हो मानव ने , खुद पर भय को अधिकार दिया
5) होली के रंगो में अब तो, मिला चूका मैं लहू बहुत,
दीवाली के दीपों से, जलते हैं मेरे ही तो घर ,
स्वयं से लड़ता रहता हूँ, ओर सत्य को ललकार रहा,
अपनी पशुता का ज्ञान नहीं, तो करता हूँ दोषारोपण अब!
6) लो आज करे संकल्प कोई, नवयुग का अभिनन्दन कर ले,
संयम अपने मन् पर करके, मन् विजय प्रथम का प्रण कर ले,
न हो अब अत्याचार कहीं , इस सोये मन् को सचेत करे,
मानवता के मूल्यों को, नव जीवन का आधार करे
७) फिर प्रेम गीत मुस्कायेंगे सवर्ण -स्वप्न भरे इन नैनो में,
फिर धर्म - ध्वजा लहराएगी, हर जीवन के आँगन में,
इस राह चले तो देर नहीं ,हाँ ये धरा स्वर्ग कहलाएगी,
जली रहेगी ये आत्म- ज्योति, जब सतर्कता एक जीवनशैली बन जाएगी.
Nitu Tiwari Katiyar
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY