Swargvibha
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241. आग वो ग़र फ़ैलती तो फ़ैल जाती

 

241. आग वो ग़र फ़ैलती तो फ़ैल जाती..
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by Nilesh Shevgaonkar (Notes)
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रमल मुसद्दस सालिम

 

 


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2 1 2 2, 2 1 2 2, 2 1 2 2
ख़ाक में ख़ुद को मिला डाला किसी ने,
ज़िन्दगी में सब लुटा डाला किसी ने।
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जान ली शायद ख़ुदा की सब ख़ुदाई,
उस को दीवाना बना डाला किसी ने।
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आग वो ग़र फ़ैलती तो फ़ैल जाती,
आँसुओं से पर बुझा डाला किसी ने।
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रेत पर लिक्खी हुई जैसे इबारत,
आज फिर सब कुछ मिटा डाला किसी ने।
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ये किसी की इंतिहा थी चाहतों की,
आज कोई ख़त जला डाला किसी ने।
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बेबसी की दास्ताँ ऐसी सुनाई,
आसमाँ का सर झुका डाला किसी ने।
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रेत में हाथों से घर अपना बनाकर,
फिर उसे खुद ही गिरा डाला किसी ने।
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इस क़दर वो आज हम से पेश आए,
राह से काँटा हटा डाला किसी ने।
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अब्र के मौसम उसे फिर याद आए,
नूर को फिर से रुला डाला किसी ने।

 

 

 

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