Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है

 

हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
जैसे कोई सपना थक कर टूटा लगता है
महल चुने, दीवारें तानी चुन चुन जोड़ा दाना पानी
लाखों रिश्तों में अपनी सूरत ही लगती है अनजानी
कर्तव्यों की कारा में मन का पंछी बिन पंख हो गया
अनजाने अनचाहे पथ पर चलते जाना भी बेमानी
मन उपवन का नकली हर गुल बूटा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है

सोने की दीवारें भी बंदी की पीर न हर पाती हैं
यादों की दस्तक पर, अनजाने आँखें भर आती है
पीछे मुड़ कर देखो तो कल अभी अभी सा लगता है
आगे जीवन के दीपक की बाती चुकती जाती है
आईने का मंजर लूटा लूटा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है
जीने का पाथेय चुकाना होता है हर धड़कन को
साँसे देकर पल पल पाना होता है जीवन धन को
जीना भी व्यापार हुआ पाना है तो देना भी है
जैसे तैसे समझाना पड़ जाता है पागल मन को
ऊपर वाले का भी खेल अनूठा लगता है
हंसना मुस्काना खुश रहना झूठा लगता है

 

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