हे यायावर….!
खोजता है कुछ
भटकता है,
कि है संधान कोई
समय के आवर्त में
या खोजता है अर्थ कोई
क्यों व्यथित है पथिक
सांसें और अंतः प्राण तेरे
रुलाते है तुझे क्या परिवेश
जीवन के कथानक
पांव के व्रण
या कि तम के
घन घनेरे…
कल्पना संसार
नातों के भंवर से
मृत्यु के उस पार
आशाएं सबल है
स्वप्न का शृंगार कर
छद्म का परिवेश धर
लक्ष्य पाने की त्वरा में
प्राण का पंछी विकल है
क्षिप्त अभिलाषा
तृषा का करुण क्रंदन
क्षितिज से आगे
क्षितिज-नव का निबंधन
भर रहे अस्तित्व में
संवेग प्रतिपल
यान से बिछड़े हुए खग
दंभ तज
आ लौट घर चल
क्या कभी पैठा नहीं
उतरा नहीं
अन्तः अतल में
या कि वर्तुल वेग में आविष्ट
झंझावात का
वर्जन किया है ?
कामना की
धूल में आविष्ट
भावालोक का मर्जन किया है?
ठहर जा दो पल..
बुझा कर दग्ध आँखें
विचारों को मौन कर ले
भ्रंश हों सब मान्यताएं
और पूर्वाग्रहों का
कण कण बिखर ले
नाद अनहद सुन
ह्रदय आनंद से संतृप्त
सरिता प्रेम की अविरल बहे
मन प्राण को स्वच्छंद कर
निर्भय अमिय का पान कर ले
और निजता में अवस्थित
आत्म साक्षात्कार कर
बस मौन हो जा
मौन हो जा
हे यायावर ……
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