मैं एक अनगढ़ पत्थर सी
चाह है सुगढ़ बन जाने की !
परंतु कैसे और कहां ?
एक तिरस्कृत मन भी तो है साथ
इच्छाओं के साथ
कदाचित मन के परिष्करण में पश्चात ही
यह संभावना संभव हो
पुन: आवागमन के फेरे
प्रकूृति की क्रीड़ा ही तो है
यह..सब
बनना चाहती हूं मैं भी माध्यम,
इस लीला में..
यात्रा छोटी हो या बडी
तुम जो भी सौंप दो मेरे नाम
जीना है उसी के साथ
भरपूर ऊर्जा के साथ गुणवत्ता निहित
एक सशक्त आकर्षक भी है
अलौकिक, ज्योर्तिपुंज सा धरोहर
सुंदर, संस्कार, आदर्श के ताने-बाने से बुना हुआ
अदभुत, साहित्य और मनोरम कलाओं को
समाहित किए हुए
सत्यं, शिवम, सुंदर के रत्नों से जड़ित
इस धरती का अभूतपूर्व गर्व
संस्कृति नाम प्राप्य है इसे..।
बहुधा डगमगाते कदम भी संभल जाते हैं
बच जाते हैं लोग
गिरने और गिराने से
व्यवस्थित जो हो जाती है
भावनाओं की वक्रगति में भी
चलते-चलते जब थक जाऊंगी
जब उस क्षण
यहीं मां की गोद में ढूंढ लूंगी स्वयं,
अपने लिए
एक लंबी सुखद चिरनिद्रा..।
पद्मा, इलाहाबाद
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