नई सरकार बनने के पश्चात समस्त भारत में एक नारा दिया गया ‘स्वच्छ भारत समृद्ध भारत’. यह नारा मात्र राजनीतिक रूप से न सही लेकिन भारतीय जनमानस और उसकी भौतिक वस्तुस्थिति का मुल्यांकन करने के लिए भी महत्वपूर्ण बन गया है.
21वीं सदी में भारत को आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अग्रणी श्रेणी में पहुँचाने की अभी भी उम्मीद बची हुई है. इस उम्मीद को व्याव्हारिक स्तर तक पहुँचाने के लिए यहां की वस्तुस्थिति पर भी नजर डालना बहुत आवश्यक है.
भारत में हर वर्ष गर्मी और सर्दी से मरने वाले लोगों की संख्या हजारों तक पहुँच जाती है. प्रत्येक वर्ष 5 लाख बच्चे हैजा, उल्टी-दस्त, कुपोषण व सामान्य बुखार से मर जाते हैं, यहाँ तक कि हजारों लोग गंदगी से पैदा होने वाली डेंगू, मलेरिया जैसी सामान्य बीमारी से भी मर जाते हैं.
“स्वच्छ भारत समृद्ध भारत” के सपने को पूरा करने में पूरी तरह से मुस्तैद लेखक पंकज के. सिंह ने अपनी पुस्तक ‘स्वच्छ भारत समृद्ध भारत’ के माध्यम से भारतीय समाज को बौद्धिक रूप से समृद्ध करने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि उसके साझीदार भी बनते हैं.
लेखक पंकज के. सिंह लिखते हैं कि “गंदगी और प्रदूषण के इस आतंकवाद से निपटने के लिए यदि देश की सम्पूर्ण सवा सौ करोड़ जनता संकल्पबद्ध होकर एक नहीं हुई तो यह समस्या देश को निगल जाएगी.” इसीलिए लेखक भारतीय दर्शन में स्वच्छता के आदर्शों को पाठकों तक पहुँचाने का श्रमसाध्य कार्य करते हैं. “शोचात स्वांग जुगुप्सा परे : असंसर्ग.
परन्तु लेखक किसी परम्परा पर आँख मूंदकर चलने की बात नही करते. इसीलिए उन्होंने समय के अनुसार अपने विचारों को बदलने पर विशेष बल दिया है- “परम्परा एवं ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति ने मन और अंतःकरण की शुद्धि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया है. हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों और प्रवचनों में निरंतर यह कहा गया है या ऐसे निर्देश दिए गए हैं कि प्रत्येक मानव को ‘मन की शुद्धता’ का विशेष ध्यान रखना चाहिए. काश ! इन धर्मग्रन्थों और आध्यात्मिक प्रवचनों में व्यक्ति, देश और समाज को भी इसी प्रकार साफ़ रखने के सख्त निर्देश यदि दिए गए होते तो निश्चय ही इसका लाभ भारतीय समाज और राष्ट्र को आज अवश्य मिल रहा होता.”
लेखक इस नजरिये को बदलने की बात स्पष्ट रूप से रखता है “भारत में आदिकाल से चली आ रही इस ऐतिहासिक ग़लती को सुधारते हुए वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार हमें अपनी सोच बदलनी होगी.” पुस्तक कुछ ऐसे पहलुओं की तरफ भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है कि “खराब एवं दयनीय सेनिटेशन की वजह से भारत में कुल जी.डी.पी. का 6.4 प्रति हिस्सा व्यर्थ चला जाता है. इसीलिए लेखक सरकारी निर्भरता की जगह जनता की भागेदारी, पंचायतों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हैं.
वहीं दूसरी तरफ लेखक पाखंडी लोगों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि “युगों से चली आ रही अवैज्ञानिक वर्ण व्यवस्था और जाति आधारित जटिल सामाजिक संरचना ने हमें स्वच्छता के महत्वपूर्ण मुद्दे से अलग कर दिया है... वास्तव में अब समय आ गया है कि हम इस बात को जान और मान ले कि समाज में मात्र एक वर्ग विशेष के ऊपर स्वच्छता का दायित्व नहीं डाला जा सकता. यह कहने से भी काम नहीं चलेगा कि एक वर्ग विशेष का कार्य सफाई करना है और शेष समाज का दायित्व साफ़ दिखना. यही अमानवीय व्यवस्था और सामन्ती सोच देश को कहीं नहीं छोड़ेगी...जाति व्यवस्था पर हमला किये बिना हम एक गरिमापूर्ण समाज और स्वच्छ एवं समृद्ध भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.”
पंकज के. सिंह सिर्फ भारत की स्वच्छता जागरुकता को लेकर ही चिंतित नहीं वरन वे वैश्विक पर्यावरण संकट तक अपने विचारों का विस्तार करते हैं. एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि भूमि और जल में रहने वाले जीवों की संख्या में 39% की कमी आई है. विश्व के अनेक द्वीप खतरे में हैं, 18 द्वीप जलमग्न हो चुके हैं और 2020 तक 14 द्वीप पूरी तरह से विलुप्त हो जायेंगे. इसीलिए पर्यावरण संरक्षण एक वैश्विक दायित्व है और इसे मिलकर ही पूरा किया जा सकता है.
लेखक पर्यावरण संकट का कारण प्रायः गरीब-अमीर को दोष देता है. विकासशील, विकसित राष्ट्रों पर आरोप लगाते हैं और नेता व जनता पर आरोप मढ़ता है. लेखक ने सभी को कठघरे में खड़ा किया है. अंततः वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि “वर्तमान औद्योगिक तथा कृषि सम्बन्धी अनियोजित कार्य अधिकांशतः पर्यावरण के प्रति नासमझी और अदूरदर्शिता का नतीजा है.” समाधान के लिए लेखक कहता है कि “सार्वजनिक परिवहन के बेहतर एवं सुव्यवस्थित जाल को बिछाए बिना सड़कों पर दौड़ रहे अनावश्यक निजी वाहनों की संख्या को कम नहीं किया जा सकता.
गंगा को साफ़ करने का मुद्दा वर्षों से चला आ रहा है लेकिन गंगा को गंदा करने वाले उद्योगों और इकाईयों की सूची भी भारत सरकार के पास है. इसीलिए लेखक सरकार को भी अगाह करता है कि पर्यावरण विरोधी एवं राष्ट्र का अहित करने वाले उद्योगों के साथ किसी भी प्रकार की दुर्भिसंधि करने आवश्यकता नहीं है.
लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से “स्वच्छ भारत समृद्ध भारत” की संकल्पना को जमीनी हकीकत को उतारने की कोशिश की है. लेखक के विचारों से किसी की असहमती हो सकती है लेकिन यह तय हो गया है कि इस गम्भीर समस्या के निदान हेतु कुछ ठोस करने की आवश्यकता है.
स्वच्छ भारत समृद्ध भारत : पंकज के.सिंह | डायमंड बुक्स | कीमत : 100
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