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अलमारी और माँ

 


अलमारी और माँ - पंकज त्रिवेदी
*
अलमारी में कपड़ों के नीचे
पुराने अखबार बिछाने की
माँ को आदत थी
पिताजी की कम आय और
महंगाई की मार
हम तीन भाईयों की एक बहन थी
महिने के अंत में पैसों की कमी
इतनी महसूस होती थी कि
लगता कब तनख्वाह आएगी?
केलेंडर के पन्ने जैसे जैसे कम होते
और पहली तारीख करीब आती तो
ज़िंदगी की आशा को कोंपलें फूटती
अब तो दो दिन ही बचे हैं, ऐसे में
माँ भी हमें प्यार से कहती
जैसे ही तनख्वाह आएगी, तुम्हारे
नए कपडे दिलाऊंगी
न जाने क्यूं तनख्वाह के साथ
कोई ऐसी मुश्किल भी आ जाती जो
सारे सपनों पर पानी फेर देती
मगर ऐसे में भी माँ हिम्मत नहीं हारती
अलमारी में रखे कपड़ों के नीचे
बिछाए हुए उस अखबार को
हमसे छुपकर देखती और वहीं से
सौ-दो सौ रुपये निकालकर
हमारी जरूरतों को पूरा कर देती
आज बेटी ने जब जिद्द करके
मुझसे कुछ पैसे मांगे तो माँ याद आई
उनकी आँखों में रही बेबसी और
प्यार का द्वन्द्व को समझ पाया मैं !
मैंने भी अखबार के नीचे से
कुछ रुपये निकालकर बेटी के हाथों में
थमा दिए और माँ के संस्कारों पर
गर्व महसूस करने लगा हूँ !


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