अब फिज़ाओं में महक रही है हिंदी भाषा
विश्व का मँच मिला हिंदी का
घर घर में अब हिंदी बोलो
रात की रानी जैसे महकी
हिंदी भाषा फिज़ा में घोलो. देवी नागरानी
बाल साहित्य के जगत में “आओ हिंदी सीखें” डा॰ सरिता मेहता जी का पहला, पर पुख़्तगी से रखा गया कदम है. नाम से, अर्थ और उदेश्य दोनों स्पष्ट नज़र आ रहे हैं. भाषा एक अदभुत रचना है, जो मनुष्य द्वारा रची भी जाती है और उसे रचती भी है. “हिंदी भाषा नहीं है, एक प्रतीक है, भारत की पहचान है, हिंदी को बढ़ावा मिल रहा है, यह हिंदुस्तानियों की मेहनत है. अनेक भाषाओं के आदान प्रदान से हमारी संस्कृति पहचानी जाती है. किसी भी भाषा का साहित्य उस भाषा का वैभव है, उस भाषा का सौंदर्य है. हर देश की तरक्की उसकी भाषा की तरक्की से जुड़ी होती है. हिंदी केवल भाषा नहीं, एक सौंदर्य है, बहती गंगा है, मधुर वाणी है.
मानव मन की वाणी हिंदी
आदि वेद की वाणी हिंदी.
सामान्य साहित्य हो या बाल साहित्य हो, दोंनों का उदेश्य और प्रयोजन समान है. बच्चों का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है, उनकी रुचि और मनोवृति को ध्यान में रखकर लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य कह जा सकता है। एक ऐसा साहित्य जो उन में बोये हुए अंकुरों को पुष्ट करता है और उन्हें अपनी छोटी समझ बूझ के आधार पर जीवन पथ पर आती जाती हर क्रिया को पहचानने में मदद करता है, साथ साथ उन्हें यह भी ज्ञान हासिल होता है कि वे अपनी संस्कृति को अपने अन्दर विकसित कर पायें.
बाल साहित्य के शिरोमणि श्री बालशौर रेड्डी ने माल ज्ञान विज्ञान पर बातों के दौरान अपनी प्रतिक्रिया में संक्षेप में बताते हुए कहा “बाल साहित्य के सूत्रों से आपका कहने सुनने का नाता है, था और चलता रहेगा. टिमटिमाते सितारे, पानी में मछली, जिज्ञासा भरे प्रश्न उत्पन करती है, प्रश्न उत्तर की चाहत रखता है, बस बाल मन समझने की जरूरत है, चिंतन मनन के पश्चात उसको पाचन करने का समय देना हमारा कर्तव्य है.
बाल साहित्य के अध्यक्ष श्री बालशौर रेड्डी ने अपनी प्रतिक्रिया में संक्षेप में बताते हुए कहा " बाल साहित्य के सूत्रों से आपका कहने सुनने का नाता है, था और चलता रहेगा. टिमटिमाते सितारे, पानी में मछली, , जिग्यासा भरे प्रश्न उत्पन करती है, प्रश्न उत्तर की चाहत रखता है, बस बाल मन समझने की जरूरत है, चिंतन मनन के पश्चात उसको पाचन करने का समय देना हमारा कर्तव्य है. प्दर्शनी की सराहना करते हुए कहा " यह कोई साधारण काम नहीं हैं. लगन ओर मेहनत रंग लाई है"
डा॰ सरिता जी ने अपनी इस पुस्तक को हर नज़रिये से बच्चों को ध्यान में रखते हुए हिंदी बाल साहित्य के लेखक का यह कर्तव्य बनता है कि बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों की सोच को सकारात्मक रूप देने का प्रयास भी करें. साहित्य को रुचिकर बनायें, विविध क्षेत्रों की जानकारी अत्यंत सरल तथा सहज भाषा में उनके लिये प्रस्तुत करें जिससे बालक की चाह बनी रहे और उनमें जिज्ञासा भी उत्पन होती रहे। इससे उनमें संवेदनशीलता और मानवीय संबंधों में मधुरता बढ़ेगी.
जुलाई में न्यूयार्क में ८वें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान बाल साहित्य पर काफ़ी विस्तार से चर्चा हुई और बहुत ही अच्छे मुद्दे सामने आए जिनका उल्लेख यहाँ करना ज़रूरी है। डॉ. सुशीला गुप्ता ने बच्चों के मनोविज्ञान की ओर इशारा करते हुए कहा कि बच्चों का मन मस्तिष्क साफ स्वच्छ दिवार होता है जिस पर कुछ भी बड़ी सरलता से उकेरा जा सकता है। इसलिये बच्चों में बचपन से ये शब्द बीज बो देने चाहिये। इसी सिलसिले में दिल्ली के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविध्यालय की डॉ. स्मिता चतुर्वेदी ने बाल साहित्य के स्वरूप और दिशाओं पर रौशनी डालते हुए यही कहा - “साहित्य बालकों की अपनी विशिष्ट छोटी छोटी समस्याओं को उभारे, उन्हें गुदगुगदाएँ, उनका मनोरंजन करें, और उनकी समस्याओं का आदर्श से हट कर समाधान दे, वही साहित्य श्रेष्ठ बाल साहित्य है।”
भाषा शिक्षण के अपने अनुभवों से परिचित कराते हुए सुश्री सुषम बेदी कहती है, “भाषा पढ़ाना एक कला है और विज्ञान भी। कला इसलिये कि उसमें लगातार सृजनात्मकता की जरूरत है और विज्ञान इसलिये कि उसमें व्यवस्था और नियमों का पूरा पूरा ध्यान रखना पड़ता है। ऊर्जा, उत्साह, सृजनात्मकता और उपज जहाँ भाषा शिक्षण को एक कला का रूप प्रदान करते हैं, वहीं पाठक-पद्धतियों का सही इस्तेमाल विज्ञान का। दोनों का संतुलन ही श्रेष्ठ भाषा शिक्षण की नींव है।” बच्चे का मानसी विकास ही कुछ ऐसा है, वह आज़ादी का कायल रहता है, बंधन मुक्त। अगर कोई उनसे कहे कि यह आग है, जला देती है, तो उसका मन विद्रोही होकर उस तपिश को जानने, पहचानने की कोशिश में खुद को कभी कभी हानि भी पहुँचा बैठता है। सवालों का ताँता रहता है- क्यों हुआ? कैसे हुआ? और अपनी बुद्धि अनुसार काल्पनिक आकृतियाँ खींचता है और अपनी सोच से भी अनेक जाल बुनता रहता है। मसले का हल अपनी नज़र से आप खोजता है यही उसका ज्ञान है और यही उसका मनोविज्ञान भी। उनके मानसिक व बौद्धिक विकास को ध्यान में रखकर रचा गया साहित्य उनके आने वाले विकसित भविष्य को नज़र में रख कर लिखा जाये तो वह इस पीढ़ी की उस पीढ़ी को दी गई एक अनमोल देन होगी या विरासत कह लें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं।
सरिता जी की मुकम्मिल कोशिश के रूप में उनका पहला कदम “आओ हिंदी सीखें” हमारे सामने इन सभी समस्याओं का समाधान बनकर आया है। प्रवासी भारतीय बच्चे में हिंदी के इस बाल साहित्य के माध्यम से भारतीय इतिहास, संस्कृति, साहित्य से जुड़े रहेंगे। साहित्य सामग्री रुचिकर हो तो बाल मन सहज ही उसकी ओर आकर्षित होता है, जैसे रंग बिरंगी तस्वीरें के आधार से शब्दार्थ को सरलता से समझ पाने कि क्षमता बढ़ जाती है, जिसका प्रयास भी इस पुस्तक में खूब दिखाई देता है। यह पुस्तक बहु-भाषी, बहु-संस्कारी, नये सीखने वाले देश और विदेश के बच्चों को देवनागरी और रोमन दोनों ही लिपियों में पढ़ने और समझने में मददगार सिद्ध होगी। इसमें सरल कविता द्वारा स्वर व व्यंजन को मिसाल साहित पेश किया है जिसे शुरूआती सीखने वाले शागिर्द बड़ी आसानी से याद कर सकते हैं। यहाँ सरिताजी ने बच्चों की मानसिकता को परख कर उसे रोचक ढंग से नवनीतम रूप में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है, जिससे उनकी निष्ठा, रचनात्मकता दूरंदेशी स्पष्ट ज़ाहिर है, जिसके लिये मैं उन्हें मुबारकबाद देती हूँ।
बस आवश्यकता है उस पुल की जो बाल साहित्य को बच्चों तक पहुँचा पाए। पाठ्य सामग्री हो तो फिर ज़रूरत रहती है वह अमानत बालकों तक पहुँचाने तक की, जो उत्तरदायित्व का काम है। बाल जन्म दिवस पर, शिक्षक दिवस हो या कोई तीज त्यौहार या राष्ट्र दिवस हो, बच्चों को खिलौने, मिठाई या कपड़े लेकर देने से बेहतर है उन्हें बाल साहित्य ही भेंट में दिया जाय, जिससे उन में चाह के अँकुर खिलने लगेंगे और वे अधीरता से हर बार साहित्य की उपेक्षा की बजाय स्वागत करेंगे, अपेक्षा रखेंगें। पर उस मुकाम को हासिल करने का जो भाषा का यज्ञ है उसकी बड़ी ज़िम्मेदारी हम पर, आप पर, और इस पीढ़ी के नौजवान कंधों पर भी है। सवाल यह फिर भी मन में उठता है कि विरासत में हम अपने बच्चों को वह भाषा “हिंदी”, जिसके लिये हम तकरीरें करते हैं, दलीलें देते है, इकट्ठे होकर भीड़ का हिस्सा बनते हैं, वो अमानत उन्हें दे पाते है या नहीं। अगर हमारी युवा पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियाँ इसे अपनाने में, संपर्क की भाषा बनाने में नाकामयाब होती है तो दोष हमारा है, देश की भाषा देश में मज़बूत रहेगी तो तब जाकर वह विदेश में पनप पायेगी, और तब ही मातृभाषा से राष्ट्र भाषा बनेगी। देश की भाषा विदेश तक पहुँचे, यह हमारी परीक्षा है, कहाँ तक हम निभा पाते हैं, कितना सींच पाते है इसे अपना व्यहवार से, दुलार से ताकि इसकी जड़ों में पुख्तगी आ सके, और यह लोरी बनकर देश, प्रवासी देश के घर घर में जहाँ एक हिंदुस्तानी का दिल धड़कता है, वहाँ गूँज बन कर फिज़ाओं में फैलती रहे, जिसका विस्तार आकाश की बुलंदियों से ऊँचा हो।
जय हिंद। जय हिंदी !!!
समीक्षक: देवी नागरानी, , न्यू जर्सी, यू एस ए., dnangrani@gmail.com
पुस्तकः आओ हिंदी सीखें, संपादकः डा॰ सरिता मेहता, पन्नेः५६, मूल्यःरु २२५, प्रकाशकः स्वरन पब्लिकेशन, हरियाणा
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