Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ऎसा भी होता है

 

 

aisa bhi

 

 

ऎसा भी होता है- देवी नागरानी.

 

प्रकाशक- शिलालेख, 4/32 सुभाष गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032. मूल्य-400/-

 

 

 

 

( गोवर्धन यादव.)
लगभग देढ़ सौ साल पहले अंग्रेजी के प्रसिद्ध विचारक मैथ्यू आर्नल्ड ने संस्कृति पर विचार करते हुए उस समुन्नत और उदात्त तत्व की तरफ़ संकेत किया था, जो प्रत्येक समाज में चिंतन और ज्ञान की सर्वोत्तम निधि को संजो कर रखता है. यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो आज के संदर्भों में संस्कृति बाजार द्वारा अतिक्रमित सभ्यता की भोगवादी, आक्रमक और नृशंस सत्ताओं के विनाशकारी प्रभाव को शामित करने का सामर्थ्य रखती है. देवी नागरानी के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह “ ऎसा भी होता है ” को पढ़ते हुए हम ज्ञान, चिंतन और संवेदना के आईने में अपने श्रेष्ठ अक्स को प्राप्त कर सकते हैं. तो ठीक दूसरी ओर इस निधि के प्रकाश में अपने लोगों, समाजों और परम्पराओं को परख सकते हैं.
इस कहानी संग्रह में कुल जमा पच्चीस कहानियाँ हैं जो अपनी समय की सीमा रेखा में चलते हुए पाठकों को एक नए परिवेश में ला खड़ा करती हैं. अंक की पहली ही कहानी है “ ऎसा भी होता है”. इस कहानी को पढ़ते हुए कलेजा मुँह को हो आता है. कहानीकार ने यहाँ अपने अनुभवों और कहन के कौशल को कुछ इस तरह से गुंफ़ित किया है कि अंदर भीषण हलचल होने लगती है, मन बेचैनी में छटपटाने लगता है, कि आखिर ऎसा क्या हो गया?, जाने कौनसी विपदा आ गई ?, जिससे वह ( दादी) देर तक हलाकान और लहुलुहान होती रही थी . कहानी का प्रसंग ही कुछ ऎसा है जो अंदर तक उद्वेलित कर देता है. वे लिखती हैं- वह दिवाली का मनहूस दिन ही तो था ,जो कुछ घंटे पहले उर्मि को गोद में लिए घर से निकले थे. पाँव छूते हुए अभय और सविता ने कहा था- “माँ दो घंटे में लौट आते हैं, आते ही दिवाली की पूजा साथ करेंगे. मिठाई लेकर कुछ दोस्तों से मिल आते है”. “अचानक दरबान खबर आया था, बुरी...हाँ बहुत बुरी खबर. मेरे अभय और सविता के अंत की और उसकी आखरी निशानी “उर्मिला” को लाकर गोदी में डाल दिया. इसी ग्यारह महीने की उर्मि को पालने-पोसने में दादी को पूरे बाईस बरस लग गए,
बालिग हो चुकी उर्मि का कहीं अता-पता नहीं है वह परेशान-हलाकान होती है. बात भी सच है कि एक जान-जवान लड़की घर से गायब है तो अभिभावक का चिंतित होना स्वभाविक है. मन के किसी कोने में समाया भय,संवादहीनता से उपजा संत्रास जैसी परिस्थितियों के बीच अपने आप को अकेला पाने का बोध, जो पीड़ा की अनेकानेक सरणियों से होकर सघन और घनीभूत हो उठता है. इस बीच फ़ोन का बजना, कट जाना, फ़िर रहस्य पर से हलका सा परदा उठना, पटाक्षेप होने के बाद हकीकत का सामना होता है कि उसकी पोती उर्मि ने सुजान के साथ संपूर्ण धार्मिक रीति-रिवाज के साथ शादी कर ली है. बहन की लड़की का व्याह रहस्यमय ढंग से मामा के करा देने, माँ और बेटी का आपस में समधन बन जाना, भाई, बहन का जमाई बन जाना और लड़की, नानी की बहू बन जाने की प्रथा आंध्रप्रदेश में प्रचलित है. इस विचित्र संबंध में बंध चुकी नानी का आश्चर्यचकित हो जाना स्वभाविक है. जबकि ये रीत कहीं और जगह देखने-सुनने को नहीं मिलती है. मन में प्रश्न उठना स्वभाविक है कि “ ऎसा कैसे हो सकता है?, क्या यह संभव है? “क्या ऎसा भी होता है? क्या यह कुप्रथा नहीं है? जैसे प्रश्न मन में उठना लाजमी है.. हमारे यहां भांजी के पैर छूने और शादी के अवसर पर भांजियों के पैर पखारने की प्रथा प्रचलित है. कहीं-कहीं तो कन्या-दान भी मामा ही करता है. मामा के साथ भांजी का विवाह होना, पता नहीं किस तरह की विचित्र प्रथा है. आज के इस बदलते परिवेश में सब कुछ संभव है. जो कभी सोचा नहीं गया, उसका घट जाना ही, आज की वास्तविकता है जो आश्चर्य पैदा करता है.
कहानी बेमतलब के रिश्ते- यह कहानी भी कुछ इसी तरह की है जो चौंका देती है. क्रिस्टी एक शिक्षिका है. उसकी दो बेटियाँ क्रमशः १७ और १५ साल की है और बेटा बारह साल का है. न्यूयार्क में पली-बढ़ी और तीन बच्चों की क्रिस्टी एक युवक से बिन ब्याहे ही चौथा बच्चा पैदा करना चाहती है. वह न तो उसे एक पति होने का दर्जा देना चाहती है और न ही उस पर आश्रित रहना चाहती है. वह न तो कोई बंधन चाहती है और न ही किसी प्रकार का दखल ही उसे स्वीकार है. अपने ही बनाए हुए चक्रव्यूह में बुरी तरह से उलझी क्रिस्टी, अपनी सहेली रमा से अपने मन की बात उजागर करते हुए सलाह मांगती है कि उसे क्या करना चाहिए? क्या ऎसा किया जाना उचित होगा? भारत में जन्मी रमा यहाँ के संस्कारों और रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित है, वह जानती है कि भारत में ऎसा किया जाना संभव नहीं है. अमेरिका की बात ही कुछ और हैं. यहाँ तो लड़कियां कम उम्र में ही गर्भधारण कर लेती है. कभी तो असली बाप कौन है, यह भी ज्ञात नहीं हो पाता. पहले सप्ताह में व्याह और दूसरे में तलाक का हो जाना, यहाँ आम बात है. इसी माहौल में पली-बढ़ी क्रिस्टी, तीन बच्चों के रहते हुए भी चौथा बच्चा पैदा करना चाहती है. अपने जीवन के पैंतीस वसंत देख चुकी क्रिस्टी की सोच अगर कुछ इस तरह की है तो उसके बेटा-बेटी जो जवानी की देहलीज पर कदम रख चुके हैं, निश्चित ही उनकी सोच, अपनी माँ की सोच से दस कदम आगे की ही होगी. वे शायद ही इस बात को बरदाश्त कर पाएंगे. संभव है माँ और बेट-बेटियों के बीच गहरा मतभेद हो जायेगा, जिससे पूरा परिवार ही बिखर जाएगा. रमा नहीं चाहती कि उसकी दोस्त का परिवार छिन्न-भिन्न हो जाए, बिखर जाए. अतः वह उसे उचित सलाह देते हुए कहती है कि इस कृत्य की उसी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. सभ्यता के अंतर्विरोधों औए द्वंद्वों का बोध एक पुष्ट वैचारिक समझदारी की मांग करता है. अतः कहानी अपने समय की सार्थक और वैचारिकी से जीवंत रिश्ता कायम करती है. सार्थक कहानी में विचार किसी वाद से आक्रांत होकर नहीं आता, बल्कि संवेदना बनकर आता है और प्रसंगतः आता है, रचनाकार की मानवीय प्रतिक्रिया के रूप में.
शिला- एक स्त्री के टूटकर बिखर जाने की कहानी है. अपने कालेज के सहपाठी- चित्रकार समीर को शिला शादी कर लेती है. बाद में यही समीर उसके सुन्दर तन की नग्न तस्वीरें बनाकर वाहवाही लूटता है जो उसे पसंद नहीं. एक पति अपनी पत्नि को कुछ इस तरह से नुमाईश की वस्तु बनाकर उसे सार्वजनिक करता फ़िरे, भला एक स्त्री कैसे स्वीकार कर सकती है? स्वनिर्मित स्वपनलोक के मायाजाल से भरे आसमान में उड़ती शिला शहर छोड़ देती है. आज प्रेम एक निरापद, इकहरी, उपभोग्य वस्तु या गतिविधि नहीं, बल्कि हालात को देखते हुए जान जोखिम में डालना होता है. प्रेम वैसे भी प्रेमियों के लिए प्राणों का सौदा रहा है, बल्कि एक ज्यादा बड़े अर्थ में आत्महंता की भूमिका को ही पहचाना गया है. जीने की कला- एक अदम्य साहस की धनी, नृत्य जगत की मयूरी पूर्णिमा की कहानी है, जो दिल में छेद होने के बावजूद अपनी कला से बेपनाह मोहब्बत करती है. मरन्नासन अवस्था में पहुँचकर भी वह अगले नृत्य के कार्यक्रम को करने के लिए उद्दत हो जाती है. मैं बड़ी हो गई- जवानी की देहलीज पर कदम रखती मिनि अपने ही अय्याश और लोलुप पिता की नजरों में चढ़ जाती है और वह उसका सौदा करने से भी नहीं हिचकता. स्वार्थ की सीमाओं को अतिक्रान्त करती यह कहानी पाठक को झझकोर देती है. ममता- नशे की आदी हो चुकी माला बिन व्याहे एक बच्चे की मां बन जाती है. अपने नवजात शिशु को देखना और अपना दूध पिलाने की वह जिद करती है, जबकि डाक्टर उसे ऎसा कहते हुए मना कर देता है कि उसके पूरे शरीर में जहर की मात्रा इतनी बढ़ चुकी है कि उससे बच्चे के जीवन को खतरा हो सकता है. भौतिकता की चकाचौंध में ग्रस्त युवक-युवतियों को यह कहानी एक सीख देती है कि लोग अपनी बदहाली और मूर्खताओं पर विचार करें. जंग जारी है- क्रान्तिकारी कमलकांत जब जेल से रिहा होकर अपने घर लौटता है तो पाता है कि उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नि सरस्वती पर बलात्कार हुआ और वह विक्षिप्त होकर पागलों की तरह सड़क पर घूम रही है. अपने देश की आजादी और खुशहाल लोगों को देखने का सपना पाले कमलकांत को क्या मिला?. भयानक रुप से दरिद्र हो चुके समाज को आईना दिखाती यह कहानी बहुतेरे ज्वलंत प्रश्न छोड़ जाती है. आखिरी पड़ाव- महानगरों से चलकर छोटे-छोटे शहरों और जिलों में तेजी से पैर पसार रही एक महामारी / अपसंस्कृति जिसको खूबसूरत सा नाम दे दिया गया “वृद्धाश्रम”. जहाँ लंगड़े-लूले, अपाहिज, परिवार के बोझ समझे गए लोगों को जबरन लाकर पटक दिया जाता है. एक समय वे कभी परिवार के आश्रयदाता रहे होते हैं, अचानक आश्रयहीन बनकर इन आश्रमों का हिस्सा बन जाने के लिए विवश हो जाते हैं. लेखिका ने स्वयं थाणे की खूबसूरत कालोनी में एक ऎसे ही आश्रम “जिन्दगी का स्वर्ग” नामक वृद्धाश्रम को देखा-भाला और कहानी में ढाल दिया. उनका यह प्रयोग काफ़ी अच्छा लगा कि इस कहानी में उन्होंने कमलेश्वर जी, मैथिलीशरण गुप्त जी के कथन को कहानी का हिस्सा बनाया. साथ ही उन्होंने “इतनी शक्ति हमें देना दाता” गीत के रचयिता श्री अभिलाष जी की कविता को स्थान दिया है. मैं सौभाग्यशाली हूँ कि एक काव्य गोष्ठी में मेरा अभिलाष जी से आत्मीय परिचय हुआ था. आजादी की कीमत- एक अपसंस्कृति जो तेजी से महानगरों में अमरबेल की तरह फ़ैल चुकी है, जिसमें इंसान की भावनाओं का कोई महत्व नहीं होता. महत्व होता है मांसल देह का जो नकाब पहनकर / अपनी पहचान छिपाकर स्त्रियों और मर्दों के बीच रंग-र्रेलियां मनाने के लिए जाना जाने लगा है.
संग्रह में और भी कहानियां हैं जो आपको एक ऎसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है और सोचने पर विवश कर देती हैं कि “अच्छा ऎसा भी हो सकता है”. यदि ऎसा विचार स्वंमेव आता है तो समझिए की कहानी सफ़ल कहानी है. सभी जानते हैं कहानी लेखन एक सघन संशिलष्ट प्रक्रिया है. एक हल्की सी चूक भी उसे ध्वस्त कर सकती है. कहानी के लिए खतरा तब बढ़ जाता है, जब कहानीकार विचारों के अनुभव के आलोक में जाँचें-परखे बगैर केवल ओढ़ लेता है, इसलिए उस पर न तो विवेक की मुहर लग पाती है और न ही संवेदना की या फ़िर कहानी के भीतर जो जीवन बोल रहा है, वहीं कच्चा होता है, अप्रामाणिक होता है या कहानीकार के पास अभिव्यक्ति का सामर्थ्य कम होता है.
सुश्री देवी नागरानी की अभिव्यक्ति का लहजा बहुत गंभीर, संयत और प्रशान्त है. उनमें संवेदना को प्रदर्शन की वस्तु बनाने की अधीरता नहीं, उसके आत्मसातीकरण की कोशिश है. संवेदना उनकी कहानी की सतह पर नहीं मिलती, उसके आभ्यंतरिक प्रकाश-वृत्त में दिखती है. जिस गरिमा, निश्छलता, सौम्यता से वे अपनी बात रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि में उनका मंत्व्य होता है- “सादगी अभाव की नहीं / एक संस्कृति की परिभाषा है. मनुष्यता के प्रति निष्ठा और विचारशीलता से समन्वित यह उदात्त सादगी ही उनकी कहानियों की संस्कृति है.
असंभव की संभावना पर इस दौर में ढेर सारी कहानियां लिखीं गईं हैं. सपनों के टूटने की दर्दीली व्यथा-कथा भी इसी दौर में शायद सबसे अधिक और विविध आयामों में कही गई है. सुश्री देवी नागरानी इस नयी संवेदनाधर्मी प्रयोगशीलता से अनभिज्ञ नहीं हैं. हाँ, यह जरुर है कि इनके यहाँ उस दर्द का तथोक्त दुहराव नहीं है. उनकी प्रयोगशीलता समवर्ती कथाकारों से भिन्न कोण पर अपना नया मकाम खोजती हैं.
कहानी संग्रह “ ऎसा भी होता है “ की कहानियाँ, कहानीकार के आत्म का पारदर्शी प्रतिरुप है. छल-छद्म और दिखावटीपन के बुनावटॊं से दूर, लाभ-लोभ वाली आज की खुदगर्ज दुनियाँ में एक सरल-सहज-निर्मल प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ-बधाइयाँ, इस आशा के साथ कि आने वाले समय में उनके नए संग्रह से परिचित होने का सुअवसर प्राप्त होगा

 

 

 

103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 लेखिका—सुश्री देवी नागरानी मो. 09424356400 सम्प्रति-शिक्षिका, न्यूजर्सी, यू.एस.ए. (रिटायर्ड) Email- goverdhanyadav44@gmail.com मातृभाषा- सिन्धी, हिन्दी, गुरमुखी,उर्दू, मराठी,तेलुगू, अंग्रेजी

 

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