Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अपने आप में एक परिचय: “हो ग़ज़ल नारी स्वयँ तुम”

 

 

mckhalish                                                          naari

 

 

मन की भावनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का इल्म कोई नया नहीं है. जहाँ भाषा, छंद और शैली का संगम कलात्मक ढंग से प्रस्तुत होता है वहीँ लेखक की विधा की संपूर्णता और संपन्नता पारदर्शी रूप में एक बिम्ब-स्वरूप सामने साकार हो जाती है. यही कलात्मक प्रस्तुति पाठक के मन को कुछ अपनी सी लगे और मन को छू सके तो लिखना सार्थक हो जाता है.


आइए रू-ब-रू होते हैं ऐसे ही क़लमकार श्री महेश चंद्र गुप्त ’ख़लिश’ जी से जो अपनी हर भावना को शब्दों के पहरन में सजाने की क्षमता रखते हैं. विषय चाहे कोई भी हो, जीवन के हर परिवेश की विविधता से उन्होंने सजाई है एक महफ़िल “हो ग़ज़ल नारी स्वयँ तुम”, जहाँ उन्होंने नारी के अंतर्मन की कोमल भावनाओं को काव्य सरिता में प्रवाहित किया है. उनकी सोच हमें अपने साथ हर उस डगर पर ले जाने में सक्षम है जहाँ नारी की निष्ठा प्रधान है-


हो ग़ज़ल नारी स्वयँ तुम ज़िंदगी के साज़ पर
रक़्से-दुनिया है तुम्हारी ही मधुर आवाज़ पर
साज़ कोई भी बजाये, कोई भी नग़्मा लिखे
है मयस्सर वो तुम्हारे ही फ़क़त आग़ाज़ पर


नारी के भावों को, बदलते विचारों को, संघर्ष को, घुटती मान्यताओं को, जीवन की दम तोड़ती भावनाओं को और मन-मंथन के लिए मज़बूर करने वाले अनेक अनुभवों को आत्मसात करने के पश्चात ही इस सच्चाई से हम परिचित होते हैं कि समुद्र की गहराई तो फिर भी नाप ली जाती है पर नारी के अंतर्मन को टटोल पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा है. ख़लिश जी ने इस भाव को सुंदर, नपे-तुले शब्दों में पेश किया है..


नारी मन की गहराई को मत नापो तुम थक जाओगे
हाथ लगेगी तुम्हें पराजय, सिर धुन-धुन कर पछताओगे


रचना का भाव-बोध बरकरार रहना चाहिए. छंद हो, बहर हो और भाव का अभाव हो तो कविता की आत्मा मुरझा जाती है. किसी भी विधा में कलमकार विषय-वस्तु को ध्यान में ले कर गंभीर चिंतन से अपनी विचार धारा को एकाग्रता से पिरो कर अभिव्यक्त करने में तब ही सफ़ल होता है जब वह बोल-चाल की भाषा में सरलता, सहजता और सादगी से प्रकट कर पाता है...


आज की ग़ज़ल जीवन की हर समस्या से समृद्ध है- सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों पर खुल कर प्रहार करती हुई. एक आम इंसान के जीवन में जब उतार-चढ़ाव आते हैं तो वह एक नपे-तुले संतुलन के बाद अपने हौसले खो बैठता है. पर जो संवेदनाएं नारी के अपने जीवन काल में उभर आतीं हैं वे अतुलनीय हैं. अपने मन के मंथन के उपरांत बहुत कुछ और भी होता है जो नारी का मन व्यक्त करने के लिए छटपटाता है. उसकी गहराई और गीराई को अपने कलात्मक शब्दों में कवि-मन ने शिल्प से कैसे तराशा है, उस बिंब की तासीर को देखिये-


परिभाषा नारी नयनों की समझ न पाये ऋषि-मुनि भी
हार चुके भाषाविद, उत्तर नया कहाँ से तुम लाओगे


मन और मस्तिष्क में ऐसी परिपक्वता नारी के अंतर्मन के मंथन के उपरांत उसके जीवन काल के हर कोण से परिचित कराती चली जाती है. थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहने के सलीके से संजोया है नारी मन की भावनात्मक अनुभूतियों से जिन्हें श्री महेश जी की कलम कह पाई है-


औरत क्या है ख़ुद औरत को भी पता नहीं शायद इसका
हाफ़िज़ है नस्ले-इंसाँ की, तहज़ीब, अमन की है मलिका
महफ़ूज़ रखे है औरत ही हर मज़हब और तहारत को
वह फ़र्ज़ निभाने की कायल, कानून उसी से है चलता


मन की वेदना की गति नारी, जो समाज के साथ, अपने परिवेश के साथ, अपने घर आँगन की मर्यादा के साथ जुड़ी रहती हैनारी बेहतर जान पाती है. अपने सीने पर पीड़ का पहाड़ रख सकती है और अपने परिवार के हित के लिए अपने होंठ भी सी सकती है—


नामे-उल्फ़त दुनिया में बदनाम कहीं न हो जाये
जब-जब पूछा किसने लूटा होठों को हम सिया किये


मौन पीड़ा मन को विचलित कर देती है और मौन सन्नाटा तब मुखर हो जाता है जब नारी का मन अपनी परिधि में ग़ैरत का दख़ल महसूस करती है. अपने परिवेश की परिधि में फ़ासलों और नज़दीकियों को भली- भाँति भाँप लेने पर, उनकी भावनाओं की अंगडाइयाँ इन पंक्तियों से भली-भांति झाँक रही है--


एक दिन हम आपके कुछ ख़ास मेहमानों में थे
अब हुआ मालूम हम तो सिर्फ़ बेगानों में थे


अपने प्रियतम के प्रेम में नारी मग्न हो कर जब श्रंगार करती है तो आईना भी मुस्कराता है. नारी जब शर्मा कर कनखियों से अपने अक्स को देखती है तो वहाँ भी उसे अपने प्रियतम की छवि दिखाई देती है. सोच की रवानी और अभिव्यक्ति की संपन्नता शब्दों में सशक्त बिंब पेश कर रही है—


जब जब मैंने दर्पण देखा चकित नज़र रह गयी बिचारी
मैं दर्पण के आगे लेकिन छवि दिखलायी पड़ी तुम्हारी


अपनी ही शोख़-मस्ती में खोई नारी तसव्वुरात की कश्ती में बैठी सोच के समंदर में बादलों के बवंडर के बीच से गुज़रती हुई, अपने मन की हलचल के उफ़ान को किस तरह ख़लिश जी की क़लम से अठखेलियाँ करते हूए पाई गई है, देखिये इस बानगी में—


आँचल सम्हालूँ कैसे तूफ़ान आया भारी
झोंका हवा का जब-तब घूँघट मेरा उड़ाये


भृष्ट समाज की परिस्थितियों से गुज़रते हुए भृष्टाचार, शोषण और ऊँच-नीच के मानसिक दबाव के तले नारी-हृदय की निराशा, आक्रोश, असंतोष और विद्रोह की भावों को कलमबंद करते हुए महेश जी की क़लम भी आशाओं-निराशाओं की भंवर मे धंसी हुई राहतों का रास्ता देख रही है--


अब तलक ख़लिश बैठे हो किस के इंतज़ार में
क्योंकर बहार आयेगी जब जल चुका है बाग़.
किसको ख़बर है शरीफ़ों के हाथों
ख़लिश हो चुके हैं ज़ुरम कैसे कैसे.


विचलित मन अपनी उदासी में ओत-प्रोत हो कर मानवता के नाम पर ढकोसले पीटने वाले अमानुष व्यवहार की जड़ों पर पर प्रहार करता हूआ इस बानगी में--


इस तरह से घुटन प्राण की बढ़ गयी
सर्द आहों में ज्यों साँस उसकी ढली


खोखले समाज में गुनाहों के देवता अपनी संस्कृति की चादर में कुरूप चेहरों को छुपाए फिरते हैं. नारी मन की आहटों का प्रतीक कवि मन भी इस समाज के इस भद्दे स्वरूप से अनजान नहीं. शायद इसीलिये वह कह उठा--

 


देखे हैं हमने हादसे ऐसे भी दर्दनाक
कि पेशतर सुहागरात लुट गया सुहाग

 

किताबे-आम से हासिल नहीं ये इल्म होता है
किताबे-इश्क़ को लेकिन तुम्हें पढ़वाऊँ मैं कैसे


इस तिज़ारत के दौर में अमानवीय मर्यादा अपने स्वार्थ की ख़ातिर अपने परिवार की सम्मानित नारी की आँखों के सपने छीन कर उनमें दर्द का सरोवर भर देती है. फिर भी नारी मन अपनी संभावनाओं की विशालता में उस दर्द को छुपा कर आँसू सोख लेती है--


सब माफ़ ख़ता है मर्दों को वो पाप करें चाहे जितने
वह सारे धर्म निभाती है, औरत तो औरत होती है


मानव सभ्यता के बढ़ते हुए असभ्य व्यवहार की मौन शिद्दत को बहरे कहाँ सुन पाते हैं. जहाँ झूठ की दलीलें उल्ज़ामों की सहमति दें वहाँ सच की बेगुनाही साबित होने से रही....


मुद्दई बने हैं ख़ुद, का़ज़ी भी हैं ख़ुद ही
देने को गवाही भी ख़ुद को ही लाये हैं

 

नारी के अंतर्मन को नर कोई जान नहीं सकता
नारी-भावों को वह चाह कर भी पहचान नहीं सकता


इसी नारी की कथा-व्यथा का साक्षी क़लमकार अपने दिल की बेचैनी और दर्द के साथ मनोभावों को व्यक्त करते हुए एक ऐसे समाज का चित्र उकेर पाया है जहाँ पढ़ा-लिखा इंसान कैसे ज़ाहिल हो जाता है. दहेज प्रथा की झुलसती आँच से कुंदन बन कर निकलने वाली स्त्री का मनोबल और प्रबल हो कर अपने वज़ूद की पहचान पा कर चीत्कार कर उठता है—


इंसान ही रहने दो, देवी न बनाओ तुम
हमको कुर्बानी की बेदी न चढ़ाओ तुम
शौहर और सास को जब दहेज ना मिला
है बहू को मारना, फ़ैसले पे तुल गये


अफ़सोस, मेंहदी की लाली जब ख़ून के रँग में घुलती है तो नारी मन की पीड़ा शब्दों में चीत्कार कर उठती है—


मेहंदी का रँग हाथ से उतरे कि पेशतर
वो जो थी बिन दहेज की, इक दिन जली, गयी


एक मर्म दिल को छूता हुआ अपने ही सैलाब में बहा ले जाता है और फिर नारी अपने दर्द का इज़हार तुलनात्मक ढँग से प्रस्तुत करती है. अपने जीवन में आए दुखों को तो वह बाँट तो सकती है पर उसकी राहों में काँटे बिखेरने वाले उस बेवफ़ा को वह कैसे बाँटे--


जो कहते थे दर्द हमारा बाँटेंगे
दिल का ग़म कुछ और बढ़ा कर चले गये


जीवन अगर ज़हर है तो उस ज़हर को भी भारतीय संस्कृति से सुसज्जित नारी अपने आँसुओं का जाम बना कर पी लेती है. इसी भाव की प्रत्यक्षता देखिये--


आँसुओं की सर्द रिमझिम के तले
दर्द ने महफ़िल जमाई रात भर

खारे पानी के कतरों से इन की तुलना करने वाले
हैं झलक मात्र मेरे आंसू दिल की पुरदर्द कहानी की

 


ज़ुल्म से दबे हुए मनुष्य की कराह अंतरात्मा की चीख होती है जो शायद हृदय-हीन मन पर दस्तक नहीं दे पाती. ऐसे में नारी अपने मन की वेदना को कह कर भी नहीं कह पाती, कि मेरा भी एक दिल है जिसमें नारी सुलभ हसरतें भरीं हैं, उनका ख़ून हुआ है. वह अपने टूटे हुए दिल की घुटन और अरमानों की सिसकियों ज़िंदगी के बहाव में छोड़ देती है--


ज़ुल्म से दबे हुए मनुष्य की कराह अंतरात्मा की चीख होती है जो शायद हृदय-हीन मन पर दस्तक नहीं दे पाती.आँसुओं की ज़ुबानी एक नारी मन की वेदना को कह कर भी नहीं कह पाई कि मेरा भी एक दिल है जिसमें नारी सुलभ हसरतें भरीं हैं, उनका ख़ून हुआ है. वह अपने टूटे हुए दिल की घुटन और अरमानों की सिसकियों ज़िंदगी के बहाव में छोड़ देती है--

 


आँसुओं की सर्द रिमझिम के तले
दर्द ने महफ़िल जमाई रात भर


हो ख़लिश बराबर हक औरत भी चाहती है
ये मगर ज़माने को बर्दाश्त कभी होता.


ग़म में / खु़शियों के बहाने ढूंढ लो
ज़िंदगी / हो जायेगी / फिर से रवां


यह मानव मन भी विचित्र है. कब कैसी कलाबाजी खाएगा, इसका पूर्वाभास नहीं होता. कभी कभी मौन पीड़ा इतना विचलित करती है कि दिल पर गहरा प्रहार घातक सिद्ध होता है और आत्मा चीत्कार कर उठती है.


श्री महेश चंद्र जी ने नारी मन की संवेदनाओं को अपनी क़लम के माध्यम से विकास का एक नया क्षितिज प्रदान किया है. नारी मन की परतों को भावबोध-समृद्ध कल्पना तथा रचनात्मक भाषा और शिल्प-सौंदर्य प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उनकी क़लम की हस्ताक्षर अनुभूति "हो ग़ज़ल नारी स्वयँ तुम" नारी को अपने अस्तित्व से जोड़ती है तथा विसंगतियों का सामना करने की प्रेरणा देती है. और तो और, एक तरफ़ नारी को अपनी पहचान का पुनर्निर्माण करने तथा जीवन- स्तर में कुछ करने की संभावनाओं का एक नया आकाश प्रदान किया है और दूसरी तरफ़ अपने अधिकार के प्रति सजग नारी पात्र के माध्यम से आशा के सूर्य की स्वर्णिम किरणों का आग़ाज़ किया है अपनी इन श्रद्धापूर्ण पंक्तियों में--


ऋण से तेरे उऋण कभी ना जीवन भर हो पाऊँगा
मेरे मन में ख़्याल ख़लिश यह आ आ कर है तड़पाता


सुधी पाठकों को नारी मन से परिचित करवाने के लिए-इस कृति के लिए श्री महेश जी को अनेकों शुभकामनाएं और बधाई.

 

 


देवी नागरानी

 

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