और तुम सहमी सी चली जाओगी
अपने मन को मारकर .. सिकुडकर
उनकी सेवा करके रात को औंधे मुँह
सो जाओगी किसी विचार में
और वो तुम्हें प्यार से न बुलाएँगे,
एक साथ होने के बाद भी
न तुम्हें बाहों में लेंगे और न प्यार होगा,
न मीठी बातें और तुम्हारी सिसकियों को
सुनने वाला कोई नहीं होगा
जो तुम्हारी भावनाओं को समझें और मन ही मन
तुम सोचती होगी.. क्या यही ज़िंदगी है ?
और तुम्हारा मन सूखे पोखर सा दरारों भरी मिट्टी बनकर
इंतज़ार करता होगा कि कोई तो मिले..
जो इस मिट्टी से भी प्यार करें, उसे भिगोये, सहलाएं
और उनमें से कुछ बनाएँ जो दोनों के प्यार परिणाम हो !
- पंकज त्रिवेदी
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY