चहल पहल – पंकज त्रिवेदी
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चैतन्य की चहल पहल से
गूंजने लगा है मन से देह का पिंजर
हर दरवाजे पे तैनात पहरेगीर अब तो
छूट्टी लेने को उतावले से होने लगे है
उनका भी क्या दोष है कि वो ज़िंदगीभर
तैनात रहते अपनी ड्यूटी पर कभी तो
वो भी चाहते है मुक्ति के कुछ पल !
रूह भी मुरझाने लगी है इस पिंजर में
गगन विहार की प्रबल उत्कट भावनाओं के
सपने देखे है उसने भी न जाने कब छूट पाएं
आज बड़ा ही शुभदिन है उन पहरेगीरों के लिए
मुक्ति पाने का और मौका ताक रही रूह भी
कब धीरे से पतली गली से नीकल जाएं !
कोइ जीजीविषा नहीं, न आशा-अपेक्षा और
मोह-माया का बंधन भी रहा है अब तो
काया की मिट्टी भी अब चाहती है धरती की
आगोश में समां जाएं शीघ्र ही
अपनी भूमिका तो ख़त्म हो गई है अब तो...
नहीं चाहिए भूमिका नई !
निराशा-आशा रहती थी सदा, सुख-दुःख के फेरे भी
रिश्तों के जाल बुनते थे सभी अपने मतलब के
हमने भी कुछ रिश्तों को समझा, परखा और कभी
दरकिनार भी कर दिया होगा, वो वक्त का तकाजा भी
किसी से न लगन है न ग्लानिर्भाव भी !
चैतन्य की चहल पहल शुरू हो गई है तो बस
उनको चलने दो, घूँघरू बजते है उनके पैरों में
उन्हें थिरकने भी दो, वक्त आएगा सही तो वो ही
निर्णय करेगा कब किस द्वार के पहरेगीर को छूट्टी दें
और मुरझाई हुई रूह भी मुक्ति की साँस लेकर
उड़ान भरें मुक्त विहार करें गगन में !
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