इंतेसाब: "उन हादसों के नाम जिनसे मुझे शायर बनने की तौफ़ीक मिली."
श्री गनेश बिहारी "तर्ज़" लख़नवी एक ऐसे शाइर है जिनकी शाइरी के रूबरू होते ही उनकी शख़्सियत सामने आ ही जाती है, सादगी से नहाये हुए निहायत शुस्ता व शाइस्ता, एक ऐसे अदम जिनकी दिल में आदमीयत वसी रही. "धड़कनें" उनका गज़ल-संग्रह खोलते ही इंतेसाब के रूप में, एक पहेली से मुलाकात हुई. सोच भी सोचने लगी ये कैसा इंतेसाब है ? क्या हादसे भी हमें कुछ वसीयत के रूप में कुछ यूँ दे जाते है जो श्री तर्ज़ जी को हासिल हुआ ? यह सोच कई दिन तक मेरे ज़हन पर हावी रही और जैसे- जैसे मैं अपने आप से जूझती हुई जवाब तलब करती रही, एक नई रोशनी मेरे अंधेरे तट को छूने लगी और महसूस हुआ जैसे हमारी दर्द के साथ पहचान जब भी होती है, हम उन पलों में शायद कहीं न कहीं अपने उस असली आप से मिल पाते है. यहीं हमारा खुद से परिचय होता है और इसी राह पर शाइरी दर्द आशना भी हो जाती है-
क्या ज़िद है कि बरसात हो और नहीं भी हो / तुम कौन हो जो साथ भी हो और नहीं भी हो.
फिर फिर उन्हीं अदाएं तग़ाफुल से फायदा/ पल भर को तुमसे बात भी हो और नहीं भी हो.
ऐसा लगता है सुकून के बावजूद हालात की उलझनों से तर्ज़ साहब की शाइरी भी आशना हो गई है. उनकी क़लम की ख़ूबी और ख़ासियत उन लफ़्जों के ज़रिये खूब छलकती है, जो बात-बात में बड़ी से बड़ी बात आसानी से कह जाते हैं. बदलते समय को उससे जुड़ी मनोभावनाओं को प्रस्तुत करती उनकी शाइरी समय के बदलते तेवरों को भी अपने ही अंदाज़ में प्रस्तुत कर पाने में सक्षम रही है. उनके क़लाम में लिहाज़ा आरज़ू लखनवी और जिगर मुरादाबादी की रंगीनियाँ शामिल रहती है.
कैसी हयात कैसी मुसर्रत कहाँ का ग़म / एक खेल था जो खेला किए धूप छाँव में.
कितनी बड़ी बात कह दी है छोटे से बहर में, जैसे शायरी उन के मिज़ाज़ में रोज़मर्रा की जीवन का एक हिस्सा है. जिंदगी की राह के हर मोड़ से गु़ज़रते हुए जो खट्टे- मीठे लम्हें उन्हें मिले वे उनसे अपना परिचय धूप- छाँव की तरह कराते चले जाते हैं. हर सुबह जो नया सूरज जागता है वही रफ़्ता- रफ़्ता सुबह से शाम तक सफर करते- करते थक कर रात के पहले आरामी हो जाता है. शायद यही ज़िंदगी है, जागना, चलना, थककर फिर सो जाना. पर हर मोड़ पर नये रिश्ते, नये मतलब के साथ सामने आ जाते है जिनसे निभाते हुए तर्ज़ साहब का नज़रिया इस हक़ीक़त को किस नज़ाकत से बयाँ कर रहा है, महसूस कीकिये इन अहसासों में-
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
फ़र्ज़ के अंजाम देने की खुशी अपनी जगह.
मेरी उनसे पहली मुलाकात उनके एक क़रीबी दोस्त के घर हुई और दूसरी जब वे मेरे पहले ग़ज़ल-संग्रह चराग़े- दिल" के विमोचन पर मुख़्य महमान बनकर पधारे. विमोचन के पाँच दिन पहले उनके मित्र के घर जाकर मैंने उन्हें अपनी दिली आरज़ू बताई. दोस्त ने फोन घुमाया और बिहारी जी से कहने लगे कि २२ तारीख़ इतवार के दिन उनको इस महफ़िल में मुख़्य महमान बनना है और "ये लो देवी जी से बात करो" कहते हुए फोन मुझे थमा दिया. मैं उलझन से बाहर निकलने भी न पाई थी कि बिहारी जी ने कहा "देखो देवी पहले मुझे अपनी क़िताब दे जाओ, मैं देख कर बताऊँगा?" मेरा मन बैठने सा लगा, चार दिन बाकी और ....!!! मैंने जाने किस जुनून में कहा "बिहारी जी पहले आप हाँ कहें, तो मैं कल पुस्तक लेकर हाज़िर हो जाऊँगी." पर जाने क्या सोचकर, कुछ महसूस करते हुए कहा "अब मैं क्या कह सकता हूँ, जैसे तुम्हें ठीक लगे.....!!" ये थी उनकी सादगी, और यही उनका बढ़पन!!! उस अवसर पर जो मौके के लिये कत्ता उन्होंने लिखा वह अंत में पाठकों के लिये शामिल किया है, इसी विश्वास के साथ कि उनकी शख़्सियत उजगार हो सके. हाँ तो सिलसिले को आगे बढ़ायें. पहली मुलाकात में उनके मुखारबिंद से तरन्नुम में यह ग़ज़ल सुनी तो उनके आवाज़ में दर्द की परच्छाइयों को शब्दों में टटोलती रही-
ऐ ग़मे जानाँ साथ न छोड़/ दूर है मंज़िल कम है हयात.
तर्ज़ न हो फिर जिसकी रात /मांग ले उनसे ऐसी रात.
उनकी शायरी में इन्सान के दिल का दर्द, दुनिया के उतार- चढ़ाव, मौसमों की बेवफाई से बदलते हुए चलन इज़हार हो रहे हैं. अपने दर्द को भी इस तरह बयां करते हैं जैसे वो आम का बन गया हो. वक़्त की करवटें जब- जब क्रूर होती हैं तब मानव मन की सोच अपने बीते कल की याद को ज़िंदा करने के लिये, अपने सुकून में इज़ाफा लाने के लिये नये आविष्कार करती है. अपनी रफ़ीक-ए-हयात के इन्तेक़ाल पर लिखी उनकी यह ग़ज़ल बस यादों की सिसकती दास्ताँ है-
अब न करवा चौथ के दिन चाँद देखोगी कभी/ अब न दीवाली के दीपक तुम जलाओगी कभी.
अब न फैलेगी कभी घर में तुम्हारी रोशनी / प्यार से अपने न आँगन जगमगाओगी कभी.
ऐसा लगता है जैसे तर्ज़ जी दर्द को बरदाश्त करते- करते अब उनसे राहत पाने का सलीका सीख गए हैं. कथ्य की स्पष्टता और वास्तविकता कहीं-कहीं मन की परतों को खोलने में पहल कर रही हैं-
अफसानाये ग़म सुन के हैरानो परेशां थे / अश्क आँख में भर आए जब तर्ज़ का नाम आया.
जिस राह से वो गुज़रे है, शायद उन पर चलकर जो ज़ख़्म उन्हें मिले है वो अभी तक हरे भरे हैं. दर्द के छाले रिसते रहते हैं विचलित करते रहते हैं, और उसी बेबसी से आगाह कराते हुए उनका कहना है-
अब्रे रवां में बर्के़ तपाँ भी पोशीदा है/ क्या जाने कब बदले मौसम देख के चलना.
वक़्त के हाथों ऐ सफ़री सब बेबस है /तुम भी नहीं तुम, हम भी नहीं हम देख के चलना.
उनके तजुर्बात का सिलसिला जैसे ज़मीं से अंबर तक फैला हुआ है. दिल पर पड़े प्रहारों से तो आत्मा भी चीत्कार उठती है. टूटे दिल की घुटन को, सिसकते अरमानों को, अपनी मौन पीड़ा को, अपने जिये गये दर्शन के माध्यम से हक़ीकत और भ्रम से वाकिफ़ करा रहे हैं-
रूह कहती थी बढ़ा इक लमहए मदहोश को होश में आने से बेहतर है कि तू बेहोश हो.
एकाग्रता में भंग न पड़ने पाए उस लम्हे की नज़ाकत को कितनी नाज़ुकता से कलमबंद किया है इन दो मिसरों में. अपने अंदर के मंथन के बाद जो असह्य पीड़ा अंगडाइयां लेती हैं वह लबों से आह बनकर टपकती है. उनके मन की बात आत्मा के लबों की थरथराहट से पहचान में आ रही है, जैसे जीने और मरने का अंतर खत्म हो गया है . ग़ज़ल की गेयता के साथ शब्दों का रख-रखाव, काफ़िये का प्रभाव तथा रदीफ़ का सहायोग बहुत ही सुंदर सलीकेदार नमूने से इज़हार कर रहा है-
किस लिये अब हयात बाकी है / क्या कोई वारदात बाकी है.
इसी भाषा की जुबानी यह शेर भी उस कड़ी से कड़ी को जोड़ रहा है. अपनों से खाया हुआ धोका एक कड़वा सच बन कर जब अंदर समा जाता है तो उस घूँट को पीते हुए उनके मन की कड़वाहट कैसे शब्दों में साकार हो रही हैः
डसते हैं यह तब आता है कुछ जि्दगी में लुल्फ़ / कैसे इन आस्तीन के पालों को छोड़ दें.
खुशी ज़रा सी मुस्तक़िल अलम का सिलसिला बनी / चुका रहे हैं अश्क जो हिसाब देखते रहे.
दिल तो जैसे तेसे संभाला /रूह की पीड़ा कौन मिटाए.
बैठे बैठे तो हर एक मौज से दिल दहलेगा /बढ़ के तूफानों से टकराओ तो कुछ चैन पड़े.
बिहारी साहब महफ़िल में रंगीनियाँ भरने के बड़े कायल हैं, जब भी कहीं बैठे तो बड़ी सादगी के साथ हंसते-हंसते अपने मन की बात शेर में कह देते. कोई कागज़ नहीं, कोई किताब नहीं बस दिल की पुस्तक खोल कर ज़ुबानी जो शेर याद आये कहते गए. कैसे महफिल सजा रहे है ज़रा गौर फरमायें इस बानगी पर-
बख़्श दीं तन्हाइयों ने महफिलें /आप हैं, और हम हैं और रानाइयाँ.
डूबने वाला न फिर उभरा कभी /उफ़! निगाहे नाज़ की गहराइयाँ.
दिल की तड़प दूरियों को जानती है, महसूस करती है. हर आगाज़ का अंत होता है, आने वाले आकर फिर न आने के लिये चले जाते है, उनकी याद की छटपटाहट किस नाजुकी से बयां कर रहे हैं ज़रा देखें-
मार डाला वक़्त के बेरहम हाथों ने जिन्हें / चंद तस्वीरें कुछ ऐसी ही उठा लाता हूँ मैं
इस शेर के अंदर बसी एक जिंदा तस्वीर जैसे दफ़्ना दी गई हो, चुनवा दी गई हो उनकी यादों की दीवार में, जहाँ हर ईंट इस की ज़ामिन बनी है. देश की मिट्टी की महक उनके सीने में तड़प बनकर अपनी ललक का इज़हार कर रही है.
पीली पड, गईं हरयाली भी / धानी आँचल सरका सर से.
देश की पुरवाइयों कुछ तो कहो / धुंध की परछाइयो कुछ तो कहों.
दर्द तो दर्द होता है, वो न कभी किसीके लिये अपना रुख बदलता है, चाहे वह अपनों का हो, दोस्तों का हो या अपने देश का ही क्यों न हो. बस एक लावा बन कर सीने की सेज पर धधकता रहता है. संग्रह के आखिरी पन्नों में उनकी नज़्म जिसका उन्वान है "धड़कनें" उनके अपने वतन की दूरी का दर्द छलक रहा है इस तरह जैसे एक दरखत बिन जड़ों के आते जाते हवओं के थपेड़ों खाकर लाचार बेबस हुआ हो.अपनी बेबसी और बेकसी की ज़ुबां वे अपने अहसासात का इज़हार कर रहे हैं..
देस बिदेस है तेरा पगले, देस बिदेस है तेरा पगले, / कितने होंगे मिली न जिनको अपने गाँव की मिट्टी
पड़ी न कितनो की अर्थी पर गाँव के पाँव की मिट्टी /कर्म भूमि ही जन्म भूमि है छोड़ ये तेरा मेरा / पगले देस बिदेस है तेरा.
बस शब्द बीज के अंकुर जब निकलते हैं तो सोच भी सैर को निकलती है, हर दिशा की रंगत साथ ले आती है. शाइर की आज़ाद- ख़्यालगाही किसी मज़हब- ओ- ज़ुबान की मोहताज नहीं, उसकी अपनी जात होती है, अपनी पहचान होती है. तर्ज़ जी की तर्ज़े-बयानी व उनका परवाज़- ए- ख़याल का यूं अंजाम देता है कि शब्दों से दुआ की खुशबू दिलों को सरोबार कर देती है. यहां उनका इशारा अपने अंदर बसी एक और दुनियां से है जहां तक पहुंच पाने की ललक और कसक दर्द बन कर उन शब्दों से टपकती दिखाई देती है. इसी बात के ज़ामिन माननीय श्री गणेश बिहारी तर्ज़ जी के दो शेर पेश करती हूं जो इस सिलसिले को बखूबी दर्शाते हैं:
होने को देख यूं कि न होना दिखाई दे / इतनी न आंख खोल कि दुनियां दिखाई दे.
एक आसमान जिस्म के अंदर भी है / तुम बीच से हटों तो नज़ारा दिखाई दे.
हिंदोस्तान की आत्मा में गीत-'संगीत बसा हुआ है . भारतीय संगीत के रागों पर ग़ज़ल के सूत्र आधारित हैं, इसी लिये ग़ज़ल गायकी इतनी मनमोहक और प्रिय है. अंत की ओर प्रस्थान करते हुए श्री गणेश बिहारी "तर्ज़" लखनवी साहिब ने 'चराग़े-दिल' के लोकार्पण के समय मेरे इस गज़ल-संग्रह से मुतासिर होकर बड़ी ही ख़ुशबयानी से उस शाम की शान में एक कत्ता स्वरूप नज़्म तरन्नुम में सुनाई पेश है. यह भाग उनकी याद में अब जोड़ा है जो शायद हमारी दिलों में धड़क पाए. वे तीन माह पहले मुंबई में दिल से हादसे से ख़ाइफ होकर इस फ़ानी दुनिया से चल दिए लेकिन अपने शब्दों में वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे...
लफ्ज़ों की ये रानाई मुबारक तुम्हें देवी
रिंदी में पारसाई मुबारक तुम्हें देवी
फिर प्रज्वलित हुआ 'चराग़ेदिल' देवी
ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.
अश्कों को तोड़ तोड़ के तुमने लिखी गज़ल
पत्थर के शहर में भी लिखी तुमने गज़ल
कि यूँ डूबकर लिखी के हुई बंदगी गज़ल
गज़लों की आशनाई मुबारक तुम्हें देवी
ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.
शोलों को तुमने प्यार से शबनम बना दिया
एहसास की उड़ानों को संगम बना दिया
दो अक्षरों के ग्यान का आलम बना दिया
'महरिष' की रहनुमाई मुबारक तुम्हें देवी
ये जशने रुनुमाई मुबारक तुम्हें देवी.
श्री गनेश बिहारी "तर्ज़" लखनवी, लोखन्डवाला, मुँबई, २२ अप्रेल,२००७
समीक्षकः देवी नागरानी, न्यू जर्सी, dnangrani@gmail.com
गज़ल संग्रहः धड़कनें, शाइरः गनेश बिहारी "तर्ज़" लखनवी, मूल्य: रु. ४०, प्रष्ठः ११२, प्रकाशकः उर्दू चैनल पब्लिकेशन, गोवंडी, मुंबई, ४०००४३
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