संस्मरण घनश्याम - पंकज त्रिवेदी
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बच्चा था, 6-7 साल का तब देखा था. आज करीब 25 सालों के बाद देखा तो मैं उन्हें पहचान गया l शायद बचपन में उन्हें कोई चोट आई थी तो ऊपर का होंठ कट गया था l चेहरा भी बिलकुल वैसा मगर तजुर्बे की भठ्ठी में पका हुआ सा लग रहा था l
आज पान की दुकान पर मिल गया. पान वाले भी हमारे पुराने मित्र. मैंने जब घनश्याम को पूछा; "कैसे हो?"
वो आश्चर्य से मुझे देखता रहा। मैंने हाथ से इशारा करते कहा; "जब मैं यहाँ था तब तुम इतना सा था l"
उनके चेहरे पे मुस्कराहट आ गई l ऐसा महसूस हुआ कि मुझे मिलकर वो दिल से खुश था l दिखावा नहीं था l वो बच्चा बनकर लौट आया हो जैसे !
जब उसने मेरा परिचय माँगा तो मित्र जुवानसिंह ने कहा; "बड़े लेखक है..."
उसी पल घनश्याम ने कहा; "तभी आप दिल तक पहुँच गए... "
और तुरंत जुवानसिंह बोले; "घनश्याम भी चित्रकार है l"
उसी पल हमदोनों की आँखों से नमीं छलक गई l
कुछ पल मौन पलता रहा और फिर घनश्याम ने कहा; "भाई, मैं पढ़ता था तब की एक कविता मैं बार बार पढ़ता था l 'जूनुं घर खाली करता...' शिक्षक ने जब ये कविता का रसास्वाद करवाया था, उन दिनों में हमने घर बदला था l सामान लेकर एक घर से दूसरे घर की वो यात्रा और यादें...."
मैंने कहा; "हाँ, वो कविता मैं भी बार बार पढ़ता था lआज भी वो शब्द और अहसास महसूस होने लगता है l"
फिर उनकी पेंटिंग के बारे में बात चली l चित्रकला की खूबियों के बारे में वो बोल रहा था और मैं कुछ कुछ जानते हुए भी उन्हें ही सुन रहा था l मेरा ज्ञान समृद्ध हो रहा था l
फिर जेब से मोबाइल निकालकर उसने मुझे साईंबाबा की पेंटिंग दिखाई l कहा, "मुझे मोबाइल ही पसंद नहीं है l जब आमने सामने बैठकर आँखों में आँखें डालकर आत्मीयता से बात हो तो उसका मजा ही कुछ और है l उसीसे आपस में प्रेम बढ़ता है l"
आज के दौर में उनकी ऐसी सोच से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ l कलाकार की आत्मा भौतिकता के आसरे नहीं होती l शायद इसलिए ही हमें भी कभी ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया से दूर रहेंl
जब उसने बताया तो मैं समझ नहीं पाया कि सिरामिक उद्योग में बनती चीजों की डाई (ख़ाका) बनाने का उनका काम था l मशीन के साथ उनका वो रिश्ता नहीं, केवल कमाई का साधन था। मगर उनकी आत्मा तो कलाकार की थी l
वो बोला; "मेरा नाम तो जयेश है मगर जन्म हुआ तब से सभी घनश्याम कहते हैं l मुझे भी अपना ये नाम - जयेश याद रखना पड़ता है l स्कूल में दाखिला लेने गए तो दो बुआ साथ थीं l उन्हों ने जयेश नाम लिखवाया तो मैं उन दोनों से लड़ पड़ा था कि मेरा नाम घनश्याम ही सही है l मगर उन्हों ने जयेश ही लिखवा दिया l"
चेहरे पे उदासी थी l फिर आगे बोला; " घनश्याम.. कितना सुंदर नाम है l जब समझ आई तो पता चला कि ये तो कृष्ण का नाम है.... और आप मानेंगे नहीं, कृष्ण की पेंटिंग करते समय साँवरे रंग में डार्क ब्ल्यू और पीछे नीला आकाश... जब किसी चित्र में गहनता दिखानी हो तो डार्क ब्ल्यू से धीरे धीरे काले रंग तक जाना पड़ता है l अंधकार में कुछ न होते हुए बहुत कुछ है... वहीं से खोज शुरू होती है..."
उनकी बात किसी के आने से रुक गई और मैं चुप रहकर घनश्याम को देखता रहा l
जो बीच में पुराना साथी कमलेश आ गया l कुछ औपचारिक बात करते हुए मैंने ही याद दिलाया; " कमलेश, तुम्हें याद होगा... एक बात हमदोनों महालक्ष्मी टॉकीज़ में फिल्म देखने गए थे। पीछे की सीट में बैठे एक लड़के ने हमारी सीट के पीछे पैर लगाया था... याद है न?"
वो घनश्याम की ओर देखते बोला; "मैंने उस लडके को दो बार कहा कि पैर हटा दे मगर वो नहीं माना और फिर कमलेश ने खड़े होकर उस लडके से कहा - "आज महंगे कपडे पहने है तो क्या हमें सीधे सादे समझ रहे हो? इतना कहते है मैंने जोरदार दो थप्पड़ जड़ दिए थे.."
हम सभी हँसने लगे l
अब कमलेश चला गया और बात का दौर भी बदल गया l घनश्याम ने अपने कारोबार की बात बताते हुए कहा; मैं जब पढ़ता था तब भी चित्र बना लेता था l तो एक दिन शिक्षक ने मुझे कहा -
"सिर्फ दो हाथों से काम करें वो मज़दूर
हाथ और दिमाग से काम करें वो कारीगर
हाथ, दिमाग और दिल से जो काम करें वो कलाकार !"
ये बात आज भी मेरे ज़हन में हैं... उनकी बातों से मुझे सुकून मिला l ऐसा लगा कि आप कुछ भी करो मगर जब दिल से किसी कार्य या व्यक्ति से जुड़ जाते हैं तो श्रद्धा से भक्ति तक पहुँचा जा सकता है l
बातों में भी किसीने खलल डाला और फिर हम दुबारा मिलने के वादे के साथ अपने अपने घर की ओर चल पड़े...
घर तक पहुँचते हुए घनश्याम की बातों का पुनरावर्तन मेरे मन में चलता रहा और सोचा कि घनश्याम मेरे अकेले का तो नहीं है न? ये घनश्याम तो हम सभी का है l
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शाम करीब 6 बजे के आसपास का समय
दिनांक : 8 सितम्बर 2018
1 Comment
सुखद अहसास
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- 20h
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