गिल्ली डंडा - पंकज त्रिवेदी
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आज मोहल्ले में बच्चों को
गिल्ली डंडा खेलते हुए देखा
मन हो गया कि मैं भी खेलूँ !
ज़िंदगी के छट्ठे दसक की
सफेदी ने एक पल के लिए
मेरे भीतर छुपा हुआ बचपन
फिर से वापस देते हुए उकसाया !
मैंने उन बच्चों के साथ खेला
वोही फुर्ती से गिल्ली डंडा का खेल
अतीत जैसे वर्त्तमान में तबदील हुआ
और मैं उन गलियारों से रूह-बी-रूह !
घर लौटते ही मैं मन ही मन मुस्कुराया
ज़िंदगी के हर पड़ाव पर मैंने देखा और
महसूस किया है सदा ज़िंदगी वाकई
रंगीन है, बस हर पल को स्वागत करें !
परिस्थिति के आगे अपना डंडा लेकर
खड़े हो जाओ, वो खुद गिल्ली बन जाएँगी
न कोई शिकायत होगी न मलाल होगा
न नाराज़गी होगी न उदासी का होगा आलम !
कुछ पल के लिए ही सही, बचपन ने
दस्तक दे दी मेरे मन के द्वार पर और मैं
सबकुछ भूलकर खुद ही के लिए खेलने लगा
खुद के लिए समय देता हुआ खुद से मिलता
आपाधापी से बचता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ !
आओ न तुम भी ! थोडा सा हम भी खेलें
ज़िम्म्देदारी के बोज को कहीं सलामत रख
खुद के लिए जिएं और अपनी निर्दोषता से
न किसी से बैर, न किसी से खटास रखें
फिर बच्चे हम नेक इंसान बन ही जाएँ !
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