Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जब भी तुम मुझे बुनती हो

 
जब भी तुम मुझे बुनती हो
अपनी स्मृतियों की चादर में 
सुख-दुःख के तानों-बानों के बीच 
अनगिनत छेद उभर आते हैं जो 
लम्हा लम्हा सादृश्य होकर अपनी 
अंगडाई के साथ हमें भी उसके 
मन मुताबिक हँसाता-रुलाता है 
आज तुम्हारे आने की खबर है 
अनहद खुशी के बीच में भी वो दिन 
चुभन बनकर याद आता है जिस दिन 
तुमने घर छोड़ा था और कभी भी 
न लौटने की कसम खाई थी मगर 
आज तुम्हारे लौटने की खबर की खुशी में 
वो चुभन उसी तीव्रता के साथ आज भी 
दर्द देती है मुझे और दब जाती है खुशी 
रिश्तों की बुनावट में तुम्हारे ताने कच्चे थे 
या मेरे ही बाने में कोइ कमी रह गयी थी -
शायद ... ! 
- पंकज त्रिवेदी 
25 July, 2014 
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