पेशे से एक सरकारी डाक्टर, डॉ० प्रवीण कुमार द्वारा लिखित कथा संग्रह ‘कथा अंजलि’ से गुजरना उस युग से साक्षात्कार करने के सदृश है जब मुंशी प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, व यशपाल जैसे हिंदी के कई बड़े लेखक हिन्दी गद्य की कीर्ति पताका दिग्दिगंत तक फहराते हुए अपनी स्वर्ण रश्मियाँ बिखेरा करते थे, धीरे-धीरे समय बदला व लेखकों के अपने-अपने अंदाज बदले तथापि डॉ० प्रवीण कुमार इस बदलते दौर में भी अविचलित व अडिग रहकर स्वतंत्र रूप से निर्भीकतापूर्वक अपना कार्य करते रहे हैं | अपने इस संग्रह के अंतर्गत प्रकाशित डिफाल्टर कथा में वे कहते हैं, “हिन्दी अंग्रेजी जीवन शैली के टकराव ने औषधियों और मानव जीवन में भी भेद कर दिया है | चिकित्सा विज्ञान की कोई जाति नही होती व कोई धर्म नही होता। चिकित्सा विज्ञान देश की सीमाओ से परे केवल मानवता के हित में होता है उसका उद्देश्य जीवन के प्रत्येक क्षणों को उपयोगी सुखमय एवं स्वस्थ्यकर बनाना होता है। अतः डिफाल्टर कभी मत बनिये!” जिन्दगी एक खुली किताब में नामक कथा में सरकारी दायित्व के निर्वहन में उपजी पीड़ा को अत्यंत निर्भीकता से व्यक्त करते हुए वे कहते हैं. “सरकारी दायित्व का निर्वान्ह् इतना सरल नही है कि उसे आसानी से निभाया जा सके। इसमे राजनीतिक सामाजिक एवं अपराधिक छवि का दुरूह तिलिस्म भी शामिल हैं। कब आपको राजनैतिक आकाओें के शक से बचाव करना हैं। कब सामाजिक कार्यकर्ताओं के हठ का सामना करना हैं। कब अपराधिक तत्वों के भय से और आंतक से बचाव करना हैं एवं स्वयं को स्थापित करना हैं। बुद्धि एवं विवेक की यह उत्कृष्ट परीक्षा पास करना आसान नही हैं।“ ठीक इसी प्रकार से मोनू की कहानी में उनका सशक्त शब्द चित्रण दृष्ट देखिये , ”प्रभात की नरम-नरम धूप जब वृक्षों की डालियों से अठखेलियां करने लगी तब रात्रि का घनघोर अंधेरा स्वत: ही छँट गया। बच्चे शैया पर माँ का आंचल छोड़ कर क्रीडा करने लगे । रात्रि का भय प्रात:काल की उमंग व उत्साह के समक्ष निष्प्राण हो गया था। धूप की गर्मी से बिस्तर पर हलचल होने लगी। मोनू और उसके मम्मी -पापा ने अर्ध निमीलीत नेत्रों से अपने आप का मुआयना किया व स्वयम को संभाल कर मोनू के ताप का परीक्षण किया।“ ठीक इसी प्रकार से रोज कुआं खोदते रोज पानी पीते दिहाड़ी मजदूर नामक कहानी में उनका उदार व निष्पक्ष चिंतन देखिये, “जाति–भेद, वर्ग भेद, ऊंच-नीच का भेदभाव व वैमनस्य ग्रामीण परिवेश मे हर परिवार की आर्थिक अवनति का पर्याप्त कारण है। राजनीति मे इसकी जड़ें बहुत दूर तक स्थापित हो चुकी हैं। जबकि भारतीय संविधान हमें इसकी इजाजत नहीं देता है। हमारे संविधान मे सभी नागरिकों को समान अधिकार , एवं समान अवसर एवं समान शिक्षा का अधिकार दिया गया है । परंतु सामाजिक कुरीतियाँ हमारे संस्कारों , हमारे रीति रिवाजों मे समा चुकी हैं। संविधान के नियमों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हमारे सामाजिक परिवेश में कलंक के समान है। किन्तु अब यह स्टेटस-सिंबल का प्रतीक बन चुका है। अपराधियों को सरंक्षण देकर , राजनीतिक लाभ हेतु उनका इस्तेमाल, जाति भेद के अनुसार प्रचार–प्रसार मे उनका प्रयोग भारतीय समाज को आतंकित एवं कलंकित करता है। प्राचीन इतिहास के परिपेक्ष्य मे हम अपनी फूट, भ्रस्ट आचरण एवं लोभ-लालच से अपने शत्रुओ को प्रश्रय दे चुके हैं। यदि हम अतीत की घटनाओं से कुछ नहीं सीखे तो आने वाला भविष्य भारत वर्ष एवं भारतीय संविधान के लिए अत्यंत अहितकर साबित होगा।“
साहित्यपीडिया डॉट काम पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित मात्र उपरोक्त पुस्तक का आकर्षक आवरण पृष्ठ भी हमारी भारतीय संस्कृति के पूर्णतः अनुरूप है | यह भी अच्छी बात है कि उपरोक्त पुस्तक फ्लिपकार्ट व अमेजन आदि पर सहजता से सर्वसुलभ है| हमारा पूर्ण विश्वास है कि यह डॉ० प्रवीण की यह पुस्तक की साहित्य यात्रा जनमानस को पर्याप्त सुकून देकर जनसामान्य के हृदय को आह्लादित अवश्य करेगी|
इंजी ० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
९१, आगा कालोनी सिविल लाइंस सीतापुर|
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