यह रचना 2013 में लिखी थी.
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कितनी सहज सरल हो तुम !
- पंकज त्रिवेदी
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कितनी सहज सरल हो तुम !
जब भी तुम्हें देखता हूँ तो यही लगाता है
तुम भी न जाने कितना कुछ सोच लेती हो
मेरे बारे में, अपनों के बारे में और मैं तुम्हें
हमेशा कहता रहता कि ज्यादा मत सोचो
कितनी सहज सरल हो तुम !
दूसरों के बारे में सोचने की तुम्हारी आदत
तुम्हारे अंदर मानों असलामती का
डर सा पैदा कर देती है ... पता नहीं क्यूं ?
कुछ ज्यादा ही सोच लेती हो.. !
कितनी सहज सरल हो तुम !
जो हुआ ही नहीं उसी की कल्पना में तुम
कितनी आगे निकल जाती हो और फिर
तुम्हारे सवालों की झड़ी बरसने लगती है
और मैं भी तुम्हें चुपचाप सुन लेता हूँ !
कितनी सहज सरल हो तुम !
मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे मन में
आशा है, अपेक्षाएं है और आँखों में सपने
मगर इन सभी को पाने के लिए सब्र तो हो
मैं समझता हूँ तुम्हारी बेचैनी को बारीकी से
कितनी सहज सरल हो तुम !
सुनो, एक दिन ऐसा भी आएगा कि
तुम्हारे लिए ही उगेगा एक नवल प्रभात
जो तुम्हारी ज़िंदगी बदल भी देगा मगर
तुम्हारे सपने साकार होंगे और तुम खुश !
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