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Dr. Srimati Tara Singh
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कौन सी ज़मीन अपनी

 

 

जीवनानुभवों के रंगों का इन्द्रधनुषी कोलाज- "कौन सी ज़मीन अपनी"

 

kaun si jameen

मानव मन अपने इर्द गिर्द जो देखता है, जीता है, भोगता है उसे ही अपने रचनात्मक दायरे में विषय वस्तु बनाकर बुन लेता है, बयाँ करता है. ऐसे ही कर्मठ कथ्य के तेजस्वी बयान डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कहानियों में पाये जाते है, शायद ये कथ्य संवेदना की धरातल पर अपना आसन जमाए बैठे हैं. संवेदना, हाँ संवेदना ही तो है जो शब्दों में सच का उजाला भर देती है.
उनके प्रकाशित साहित्य के विस्तार में के वसीह कैन्वस में उनकी अनुभूतियों में शामिल हैं: "कौन सी ज़मीन अपनी ( कहानी-संग्रह ), वसूली (कहानी-संग्रह हिन्दी एवं पंजाबी ), टारनेडो ( पंजाबी में कहानी-संग्रह ), धूप से रूठी चाँदनी ( काव्य-संग्रह ), सफ़र यादों का (काव्य-संग्रह ), मेरा दावा है (काव्य संग्रह-अमेरिका के कवियों का संपादन ), तलाश पहचान की (काव्य- संग्रह ), परिक्रमा (पंजाबी से अनुवादित हिन्दी उपन्यास), माँ ने कहा था (काव्य सी .डी ), संदली बूआ (पंजाबी में संस्मरण ). उनके सहित्य सागर के विस्तार में धंसते जाने की संभानवनाएं बहुत है. जब कभी उनके कथा संसार से परिचय होता है, तब पढ़ते हुए यही आभास होता है कि लेखिका की तेजस्वी क़लम सामाजिक सरोकारों के प्रती अपनी सजकता से, उनमें गहरे उतरकर, किरदारों के साथ सफ़र करती हुई कहानियों की विषय-वस्तु, संचारित शब्द-प्रवाह, भाषा की सरलता व् वर्णन शैली से हमें मिलवाती है, जिसमें समोहित होती है विविधता और संकल्पशीलता!


सुधा जी के साहित्यिक संपन्न संसार से जुड़ना एक अनुभव है, शायद इसलिए कि अभिव्यक्ति के अनेक कथ्य और सत्य हमें अपने से लगते हैं. वैसे देखा जाय तो दुनिया की कोई भी कहानी नई नहीं है. हर दिन जिंदगी एक नया मोड़ लेती है और अनेक अनुभव के दरवाज़े खोलती है. हर किस्सा पुराना होने के बावजूद भी जब दर्द से नम होता है तो लगता है दिल के तहखानों में सन्नाटा भर जाता है, और उसी सन्नाटे भरी सुरंग से हमें अपना भविष्य दिखाई देता है. आज की कहानी पुरानी कहानी की ही एक कड़ी है जो नए परिवेश, नयी संस्कृति की छत्र- छाया में पली है. उनके कहानी संग्रह "कौन सी ज़मीन अपनी" में १२ कहानियाँ अपनी विविधता में हमारे देश के परिवेश से जुड़ी सभ्यता, संस्कृति के बलबूते पर उस मिट्टी से हमें बार- बार जोड़ने को आतुर रहती है. कुछ ख़ास कहानियां जो मुझे पढ़ने पर विचलित करती रहीं वे हैं...बिखरते रिश्ते, क्षितिज से परे, फंदा क्यों, टारनेडो , सूरज क्यों निकलता है, लड़की थी वह, एक्सिट, संदली दरवाज़ा और कौन सी ज़मीन अपनी. सुधा जी का कथा संसार सधी हुई भाषा, वाक्य संरचना का रेखांकन बड़े ही कलात्मक ढंग से शब्दों द्वारा, संवादों द्वारा अपने आप को अभिव्यक्त करता है. उनकी कई कहानियाँ पढ़कर ऐसा आभास होता है कि वे जीवन की बुनियादी चिंताओं को भी अपनी रचनात्मक मनोभूमि में ले आई हैं. नारी पात्र की विवशताओं, विडंबनाओं, व परिस्थितियों की अनुकूलता के साथ करवट बदलती है, ज़िंदगी के हर पहलू से हमें मिलवाती है.


जीवन प्रेरणादायक स्त्रोत है, हमेशा बहने वाली नदी की तरह. जो बहती है, बहती रहती है निरंतर, निष्काम! अंचुली भरकर पी लेने से कहाँ प्यास बुझती है. ऐसे ही मानव जब अपने आस-पास की परिधि के अंदर और बाहर की दुनिया से जुड़ता है तो जीवन की हक़ीक़तों से परिचित होता है. पारिवारिक संबंध रिश्तों की पहचान, अपने पराये का भ्रम, गर्दिशों का उतार-चढाव, दुःख-सुख की धूप छाँव और अपने जिये हुए तजुर्बों को जब क़लम की रवानी अभिव्यक्त करती है तब साफ़-शफ़क़ सोच नई और पुरानी तस्वीर को देख पाती है. यह परिपक्वता तब ही हासिल होती है जब आदमी उन पलों को जीता है, भोगता है. एक समय की परिधि में हम सब अपनी- अपनी यात्रा करते हैं . दुनिया में कोई किस्सा ऐसा नहीं है जो सुना-सुनाया नहीं लगता. पुराना होने के बावजूद भी वह दर्द का किस्सा दोहराने पर अपना सा लगता है और दिल की धड़कन उस दर्द को सहलाने के व्रत में शामिल हो जाती है. कौन सुनता है खामोशियों के भीतर का शोर? बहुत कुछ कहने लिखने के बाद भी यूं लगता है कि बहुत कुछ अनकहा रह गया है. इस जीवन के महाभारत में हम सब बस अपने- अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते रहते हैं.


दर असल कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो हमारे साथ- साथ सफ़र में हमसफ़र बनकर चलते हैं, पर हम उनकी कराहना तक सुनने में असमर्थ रहते हैं. गर सुनते भी हैं तो उन्हें चुप नहीं करा सकते और ऐसे में जब एक इन्सान अपने अंदर टूटने लगता है तब बाहर उस झनकार की आवाज़ तक किसी को सुनाई नहीं देती. ऐसे ही अदृश्य ज़ख़्मों की कहानी " बिखरते रिश्ते" जिसमें मर्म भी है और जीवन की कड़वी सच्चाई भी. आइये अपने ही भविष्य से रू-ब-रू होते है.
मानव प्रकृति से भूख से जुड़ा हुआ है, मन की भूख, तन की भूख, सोच की भूख अभिव्यक्ति की भूख, शान -शौकत की भूख, और सबसे ज़ियादा दौलत की भूख!! चाहतें ही तो इंसान को भटका देती हैं, चाहतों के जंगल में ही सारे के सारे लोग भटक गए हैं, सुधा जी के शब्दों में "भटके कहाँ वे तो गुम हो गए हैं". मानवता जैसे एक सियासी मैदान में आकर खड़ी है, जहाँ रिश्तों की झीनी चादर ओढ़ने का कोई मतलब ही नहीं निकलता. बस यही भूख आदमी को उस दिशा में ले जाती है जहाँ वो अपनी इस आग को तृप्त कर सके, और इस पगडंडी पर चलते- चलते अहसास इतने सर्द हो जाते हैं कि अपने-पराये की सभी परीधियाँ मिटने लगती हैं.


इस कहानी में मार्मिक अंश संवादों में पनाह पा रहे है. जो इंसान अपनी उम्र के अनेक मौसम गुज़ार आया हो, वह अपने स्वार्थी बच्चों को पहचानने में कैसे धोखा खा सकता है? पर वह यह भी देखना चाहता है कि वे इस दौलत की चमक दमक में कितना गिर सकते हैं? जहाँ पिता की आत्मा चीखकर कह रही हो. "चाहतों की भूख ने हद कर दी, उनका बैंक में पड़ा पैसा भी बच्चे धीरे-धीरे अपने नाम करवाने लगे, किसी न किसी बहाने उनसे चैकों पर हस्ताक्षर करवा लेते रहे, यह कह कर कि बाबू जी से हिसाब नहीं होता."
'' रिमझिम मुझे सब हिसाब रखना आता है, मैं सब कुछ इस लिए इन्हें देता जा रहा हूँ, देखना चाहता हूँ, मेरे बेटों की हद क्या है..?''


समय के परिवर्तन के साथ जीवन मूल्यों में जो बदलाव आया है, यही उसका असली स्वरुप है. काल चक्र इसी को कहते हैं, कुछ पुराना मिटता है और कहीं कुछ नया पनपता है. यह सब परिवर्तन का एक हिस्सा है. अगर इन्सान अपने बड़ों में अपना भविष्य देखे तो शायद बेहतर समाज के निर्माण में कोई एक नयी ईंट लगे........!! पर फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? सहरा की तपती चट्टान पर गर आज का वृद्ध बैठा हुआ है तो सच मानिये, जवानों के गुलशन का रास्ता भी कल इसी सहरा से होता हुआ गुजरेगा. गुज़रा हुआ कल 'आज' बनकर हमारे सामने अगर खड़ा है तो वही आज जब आनेवाले 'कल' में तब्दील होगा तो इतिहास खुद को दोहराएगा.


इस कहानी का अंत अपंग आदमियत पर एक करारी चोट है. अपने होने की दावेदारी सिर्फ़ वसीयत तक ही महदूद है, जहाँ देने वाला कितना टुकड़ों में बँटता है यह कोई नहीं देखता. शायद वह देखने वाली आंख ही नहीं..!! इस कहानी को पढ़ते- पढ़ते मेरे आंखों की नम सियाही इन शेरों में ढलकर थम गई...


टुकड़ों - टुकड़ों में बंटा है आदमी
इक वसीयत बन गया है आदमी
प्यार की सौगातें लेता है मगर
नफरतों को बांटता है आदमी
साजिश-ए-तक़दीर में जकड़ा हुआ
लो, खिलौना बन गया है आदमी.


वर्तमान समस्याओं और ज़िन्दगी की पेचीदा तजुर्बों की तर्जुमानी करना इस क़लम के बस की बात नहीं. कुछ कहने-लिखने के बावजूद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. बस खुद तो टटोलने की ज़रुरत है, इस बेपनाह शोर में भी खामोशियाँ चीखती हुई ऐलान कर रही हैं कि जिन जड़ों के कांधों पर पले बड़े, जिस आंगन में ज़िन्दगी की पाठशाला का पाठ पढ़ा, वे जड़ें निराधार क्यों हैं? पुरानी पीढ़ी को अपने घर आँगन की छाँव से दूर वृद्धाश्रम में पनाह पाने के लिए मजबूर किया जाता है, क्यों? कौन ख़ुशी से बेवतन होना चाहता है? कौन अपने पाँव से आज़ादी के स्वर्ण कड़े निकाल कर गुलामी का लोहा पहनना चाहेगा? अपंग मानवता अपनी ही नादानियों की कीमत इससे ज़ियादा क्या दे सकती है? ऐसी कहानियां पढ़कर यूं लगता है कि हम अपने ही अपंग भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ हमारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. सवाल फिर भी उठता है कि अगर देंगे नहीं तो पाएंगे क्या?


अकेलापन क्या होता है यह वही शजर बेहतर जानता है जिसकी हरी भरी शाखों के पत्ते झड़ गए हों! वैसे भी रिश्तों की चादर जब महीन और झीने हो जाती है तो उसे ओढ़ना क्या, बिछाना क्या ! ज़िन्दगी शब्दों में अगर समाधान ढूंढती है तो वह बीमार ज़िन्दगी है. जब जीने वाला पात्र, मात्र मांस का लोथड़ा बन जाय तब आभास यही होता है कि मानवता आखरी सांसें ले रही है. अपने सुख के आगे, और का दुःख, उस दुःख की दलदल से उठती तड़प को अगर इंसान महसूस न कर पाए तो निश्चित ही इंसानियत लडखड़ाएगी.


कहते हैं नारी की पूर्णता मातृत्व प्राप्त करने में है. टैरी भी एक औरत थी , पीटर और जेम्स उसके बेटे, दोनों जुड़वाँ भाई अपनी मां के ग्यारह बच्चों में से दो थे. कहानी का अंश सुधाजी की ज़बानी उसके परिचय में कहता है "टैरी नाम की महिला उनकी माँ थी. उसके लिए माँ शब्द सही नहीं, उसे माँ कहना उचित भी नहीं, यूँ कह सकते हैं कि वह बच्चे पैदा करने वाली मशीन थी. माँ क्या होती है, बच्चों को पता नहीं और ममता क्या होती है, टैरी को पता नहीं. बस उसने तो बच्चों को जन्म दिया, ग़रीबी रेखा से नीचे मिलने वाली सरकारी सहायता वेल्फेयर लेने के लिए. हर बच्चे के बाद नए बच्चे के पालन -पोषण हेतु वेल्फेयर से उसे और पैसा मिल जाता था. कहानी "सूरज क्यों निकलता है" में सुधाजी ने वेल्फेयर से मिलती हुई सुविधाओं पर टिकी ज़िंदगानियों को निराधार और गुमराह होने की दिशाओं को उजगार किया है.


पढ़ाई- लिखाई पर तवजू न दे पाने के कारण भी बच्चे असभ्य, बिना संस्कार बस मनमानियों की डगर पर निकल पड़ते हैं. सुविधा के नाम पर मिले फ़ूड स्टैंप्स को ये बच्चे आधी कीमत पर होटल वालों को बेच देते है और अपने ऐश का समाधान पा लेते हैं. भूख और भीख के बीच एक रिश्ता कायम हो जाता है जहाँ भीख मांगना भी एक व्यापार बना लिया जाता है. भूख की ललक मानव मन को गिरावट के स्तर पर किस हद तक ले जाती है यह इस कहानी के तत्व में पाया जाता है. दोष किसका? जन्म दतिनी का या सरकार का? दरअसल बाधाएं, प्रतिकूलताएं, पराजय, जीवन सूत्रों का सम्यक संचालन न कर पाने की अक्षमता का दूसरा नाम है, जो कमज़ोर वृति के लोग अपनी निजी, बौधिक मानसिक, भावनात्मक, शारीरिक दुर्बलताओं को ढांपने के लिये तर्क के तौर पर पेश करते रहते हैं. हक़ीकत में परिवेश में रहते हुए हर दृष्टि से आत्मनिर्भर होना, विश्वास की जड़ों को मज़बूत करता है, पर उसके लिए निष्टा पूरक सच्चाई और ईमानदारी की दरकार है. कहानी का शिल्प तथा भाषा का सधा हुआ स्वरुप सरल, रोचक तथा प्रभावशाली है.


मानव मूल्यों से लदी हुई एक और कहानी "फन्दा क्यों" हमारे सामने ज़िन्दगी के अनगिनत सवालों को लेकर पेश हुई है जिसका एक भी जवाब नहीं ! पढ़ने पर लगता है यह किसी एक की नहीं, तमाम मानवता की कहानी है, और इस बात की साक्षी है कि देश और काल के प्रभाव से कोई अछूता नहीं रह सकता है, न आदमी न व्यवस्था....!!
अपने अतीत से कोई भी जुदा नहीं है. अपना बीता हुआ कल, देश की याद, उसकी मिटटी की महक, चाहे वह सात समंदर पार ही क्यों न हो, यादों से हमेशा जुड़ती रहती है. इन गर्दिशों की भंवर से गुज़रते हुए उसी मिट्टी की उपज, पात्र मोहन की आत्मा गाथा है. यह उस दौर की बात है जब बंटवारे की पीड़ा चारों तरफ कराह रही थी, लोगों के शरीर व् आत्माएं घायल थीं. आर्थिक तंगी हर तरफ, ठिकाने पर बस जाने की विवशता सामने थी. गरीब किसान के लिए उस ग़रीबी से निकलना मुहाल था. मोहन एक किसान का बेटा, पांचवी पास था, पर उन हालातों से समझौता करने के लिए कतई तैयार न था. अपने गांव के दोस्त बख्शिंदर की मदद से रातों-रात जहाज़ से अमेरिका पहुँच जाता है, जहाँ वह कई वर्ष मेहनत करके अपने पिता को क़र्ज़ से रिहा करवाना चाहता है और अपनी बहनों की शादी भी करवाना चाहता है. परदेस में स्थाई तौर पर बस जाने के लिये ग्रीन कार्ड हासिल करने के चक्कर में एक मेक्सिकन लड़की से शादी करता है और फिर कार्ड मिलने पर उससे तलाक भी ले लेता है. रिश्ते न हुए व्यापार हो गया!! और फिर अपनी ही बिरादरी की लड़की जसबीर से शादी कर लेता है.


सरकार से ताल्लुक रखता हुआ एक सशक्त संकेत वहां और यहां की व्यवसथा का इस कहानी में दर्शाया गया है. अमेरिका में भी कुदरती आपतियाँ आतीं हैं, बाढ़, सूखे, भूकंप और जब सरकार मदद करती है जो लोगों तक पहुँचती है. भारत में ऐसा क्यों नहीं होता? वहां भी सरकार समृद्ध है, पर सांचा भ्रष्ट होने के कारण सहायता वहां नहीं पहुँचती जहाँ पहुंचनी चाहिए. परिणाम स्वरुप समय की चक्की में गरीब किसान अपने वजूद के साथ उस लिए हुए कर्जे के बोझ तले पिसता जाता है. कभी तो वह दबाव तले ज़हर खा लेता है, कभी अपने गले में फंदा पहन लेता है तो कभी अपनी पत्नि को बेचने के लिए मजबूर हो जाता है. ऐसी दुर्गति के दौर में जब जसबीर एक दिन मोहन से वतन लौटने का ज़िक्र छेड़ती है और वहाँ जाकर अपने परिवार वालों के साथ मिलजुलकर खेती बाड़ी करने की संभावना की बात करती है तब मोहन उसे देश में होते आ रहे अत्याचारों का किस्सा सुनाते हुए कहता है...


''कहाँ खेती- बाड़ी करेंगे जसबीर कौरे, जहाँ मेरे किसान भाई, मेरी बिरादरी के लोग ज़हर खा रहे हैं, गले में फंदा डाल रहे हैं, अपनी पत्नियाँ तक बेच रहे हैं." अपनों के दर्द में साँझे न हो पाने का दर्द उसे कुछ इस तरह से घोंटता है जैसे किसी ने उसके गले में फंदा डाल दिया हो. परिवेश में होती तब्दीलियाँ जब आंखों के सामने रक्स करती है तब मन की पीड़ा को शब्दों में ज़ाहिर करना कुछ नामुमकिन सा हो जाता है. बस बीते पलों की याद में फिर जीना पड़ जाता है, भोगी हुई पीड़ा को फिर सोचों में दोहराना पड़ता है. कुछ ऐसे भाव भीने प्रभावशाली बिंब मन की तलवटी पर अपनी छाप छोड़ने में ज़रूर कामयाब हो जाते हैं.


कहानी "क्षितिज से परे" की पात्र सारंगी भारतीय संस्कारों से लदी एक गृहणी, ४० बरस के पश्चात परिवार के हर रिश्ते के निर्वाह और निबाह के बाद अब अपने पति सुलभ की तानाशाही से मानो रिहाई चाहती है. भरपूर परिवार, बच्चे, पर पोते सब कुछ होते हुए भी उसे हालत इस निर्णय तक ले आते हैं. जब वह शादी के बाद देस से परदेस आई तो मात्र एक प्रोफेसर की अनपढ़, बेवक़ूफ़ पत्नी बनकर रह गई. पति को खुश करने के हर प्रयास में असफ़ल होकर वह अब वह इसी निष्कर्ष पर पहुंची कि वह वही करेगी जिस से उसे ख़ुशी हो. वह तलाक के लिए वकील से मिलती है और कारण पूछे जाने पर असहनीय परिस्थितियों को समेटते हुए कहती है "कारण असहनीय नहीं होते. इंसान होते हैं. वे कारणों को असहनीय बना देते हैं"


औरत उस गृहस्थी को कभी भी तोड़ना नहीं चाहती जिसे वह यत्न, प्रयत्न और प्रयास से खड़ा करती है. पर जब वहीं उसके स्वाभिमान और सम्मान के चिथड़े रोज़ उड़ने लगते हैं तो वह उसे छोड़ने पर मजबूर हो जाती है. कहानी पढ़कर सोच भी कभी ठिठक कर सोचती है! औरत भी तो शक्ति का रूप है जीवन प्रदान करना उसकी क्षमता है. हां पुरुष प्रधान समाज में हालत से मुकाबला करना कठिन हो जाता है, और यहीं औरत अपनी बनाई दीवारों की कैदी बन जाती है. अपने भीतर के न्यायलय में स्वयं को यह निर्णय सुनाती है, कारावास का दंड भोगती है. इस कशमकश के दायरे में ऐसी भी औरतें है जो इन पहरों को तोड़-फोड़ कर अपने बंदीगृहों से भाग निकलती है, पूरे रेगिस्तान पार कर जाती है और कई वीरानों से गुज़रकर एक नए क्षितिज पर पहुँच जाती हैं .


सुधाजी ने इस कहानी को रेत की धरातल पर रखे हुए नाज़ुक रिश्तों के इक कोण को शब्दों में बांधकर एक पहलू नई पीढ़ी के सामने रखा है. विषय में डूब जाने से कहानी के किरदारों के साथ न्याय कर पाने की संभावना बनी रहती है, और कल्पना यथार्थ से घुल मिल जाती है. किरदारों का जीवन, उनकी भाषा, संवाद शैली, नाजुक सोच की आज़ादी जो पूरी तरह से वक्त की बहती धरा के अनुकूल है अपना परिचय पात्रों के माध्यम से पाने में कामयाब रही है. कई प्रभावशाली बिंब मन की तलवटी पर अपनी छाप छोड़ने में समर्थ व सक्षम रहे हैं सुधा जी की अपनी पैनी समीक्षात्मक निगाह इस दौर से गुज़रते कई पथिकों की गवाह रही है, जो इस राह से गुज़रे है और यही शिद्दत कलमबंद किये गए अहसासात को एक दिशा बख्शने के लिए काफ़ी हद तक कारगर रही है. कहानी गुज़रे पलों और आाने वाले पलों के बीच की एक कड़ी है जो मार्गदर्शक बनकर राहें रोशन करेगी.


ऐसी ही पेचीदा पगडण्डी से गुज़रते हुए सुधा ओम की कहानी "कौन सी ज़मीन अपनी" के पात्र देस-परदेस की मिटटी, उसकी महक से निकल कर जब हक़ीकत से जुड़ते हैं तब कहीं जाकर अपनाइयत और गैरत का अंतर उन्हें समझ में आता है. भ्रम की ख़ुशफ़हमी किसी हद तक सही है पर बीते हुए पलों की बुनियाद पर आज को नहीं टिकाया जा सकता. जब घुटन अपनी ही सांसों में हो तो फिजाओं को यहाँ वहां ढूंढना बेमानी है.


कहानी के किरदार मनजीत और मनविंदर अमेरिका में एक टाऊँन हॉउस में रहकर मेहनत के कमाए पैसों से भारत में ज़मीन खरीदने के लिये अपनो भाइयों को भेजते रहते. मनविंदर के पूछने पर बड़े गर्व से छाती चौड़ी कर मनजीत सिंह कहता ''मनविंदर कौरे, जाटों की पहचान ज़मीनों से होती है.'' शायद नहीं, यक़ीनन तब से अब तक मनजीत का एक ही सपना रहा कि बुढ़ापा भारत में बिताना है. इस चित्र को यह अंश बखूबी दर्शा रहा है "मनजीत आज भी तीस साल पुराने सम्बन्धों में ही जी रहा था. समय का परिवर्तन भी उसकी सोच व रिश्तों के प्रति दृष्टिकोण में कोई अन्तर न ला सका. भारत की प्रगति और बदलता परिमंडल भी उसकी ठहरी सोच के तालाब में कंकर फैंक, लहरें पैदा नहीं कर सका था."
सुखद कल्पनाओं और भारत लौटने की चाह में वह दिन गिन रहा था. वहीं बस जाने की आतुरता, भाइयों के मोह में कह उठता "अमेरिका का जीवन स्वर्ग में काले पानी की सज़ा है, सब कुछ ऊपरी, बनावटी और बेरंगी दुनिया है. भावनाएँ, गहराई, सच्चाई और रस तो अपने देश में है.'' परिवार के साथ रहकर उस धूप-छाँव का आनन्द लेने के ख़वाब दोनों पति - पत्नी आँखों में संजोते रहे. आख़िर ३० बरस के बाद अमेरिका छोड़-छाड़ कर अपने वतन लौटते हैं जहाँ उन्होंने अपने भविष्य के सपने सजाये थे. जो उनकी ज़मीन है, वह अब उनकी न रहकर भारत में बसे भाइयों की हो गयी थीं. अमीरी में उनकी गरीबी तो ढक गयी, पर पैसे की गर्मी ने रिश्ते ठन्डे कर दिए. अब उन रिश्तों में खून का वो उबाल न रहा. उन अपनों के दिलों में थोड़ी सी जगह पाने की चाहत, सपना बन गई, और मनजीत अपने ही घर में अजनबी बन गया. वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि माँ- बाप, भाई ऐसे कैसे इतना बदल सकते हैं ! ज़मीनों ने रिश्ते बाँट दिए थे, उसके खून पसीने की कमाई दौलत पर रह रहे उसके दोनों भाई उसके खून के प्यासे हो गए थे...! वह हक़ीकत से रूबरू होकर भी यह नहीं जान पा रहा था कि कौन सी ज़मीन उसकी अपनी है?


सपनों का भव्य भवन पलकों में सजाये रखने तक ही ठीक है, खुली आंखें सिर्फ टूटे हुए सपनों के बोझ को ढोती है. इन टूटे हुए सपनों के दर्द से खुद को बचा पाना, उस अन्तःहीन पीढ़ा से गुज़ारना है मुश्किल है पर नामुमकिन कुछ भी नहीं. ज़िन्दगी हर किसी को दुबारा मौका देती है. ये अलग बात है की कोई पदचाप सुन लेता है तो कोई दस्तक भी नहीं सुनता.
कहानी के किरदार मन-चाही पंजाब की मिटटी की सुगंध मन के आंगन में समेटे हुए, संवादों के माध्यम से अपने देश की, अपने लोगों के लिए बसा हुआ हुआ प्रेम, अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर पाने में सफल हुए हैं..भाषा के माध्यम से वार्ता लाप, उठन-बैठन, अचार-विचार की लेन देन से अंतर्मन को टटोल कर पात्र अपनी पहचान खुद दे पाए हैं. विदेशों में लिखे जा रहे साहित्य की परिभाषा में सुधा जी ने प्रवास को अपने देस से जोड़कर, एक काल्पनिक संधि रेखांकित की है, जो यथार्थ के बहुत करीब है. भाषा में एक भरपूर ताज़गी का अहसास अपने वतन की मिटटी से न्याय कर रहा है.


कुल मिलाकर ये कहानियाँ सुधा जी की मानसिक द्वंद्व की उपज है, जहां हर पात्र अपनी ही परिधि से संघर्ष करता रहता है. इसके बावजूद भी क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, एक दूसरों के विचार और अनुभव को समझने का प्रयत्न करके अपने इर्द- गिर्द की वास्तविकताओं को समझना चाहता है, अपनाना चाहता है. यह एक सकारात्मक पहलू है. यह प्रयास भी अपने आप में एक महायज्ञ के हिस्से से कम न होगा जो अपने आसपास के परिवेश में, परिस्थितियों में, एक हलचल को जन्म देता है. यही तो एक क्रांतिमय हलचल को जन्म देती है जो विस्फोटित होती है. यहाँ मुझे श्री केदारनाथ सिंह की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ याद आती है, जो मुझे हमेशा मुतासिर करती रही है. उनकी यादों में दीवार पर चिपकी हुई तितली और उसके विरुद्ध छटपटाते उसके छोटे छोटे पर कहीं अब भी थरथरा रहे थे….


"तितली के उन परों का हिलना भी / एक विस्फोट है/ दुनिया के सारे विस्फोटों के ख़िलाफ़"
साहित्य भी एक क्रांतिमय हलचल है जो सफ़लता के योगदान में भागीदार है.. और सुधा जी की क़लम लगातार अपने प्रयास के परों से उस हलचल को बरकरार रखती आ रही है. पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है और हिंदी साहित्य में अपने योगदान के लिये विषेश स्थान पाएगी इस शुभकामना के साथ.

 

 

 


देवी नागरानी, न्यू जर्सी, यू. एस. ए. August 15, 2011
कहानी संग्रह: कौन सी ज़मीन अपनी, कहानीकार: सुधा ओम ढींगरा , पन्ने:128, मूल्य: रु २००, प्रकाशकः भावना प्रकाशन, दिल्ली ११००९१

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