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लौ दर्दे-दिल की

 

 

lau                                                            govardhan

 

लौ दर्दे-दिल की (ग़ज़ल-संग्रह समीक्षा आलेख)-देवी नागरानी -समीक्षक:गोवर्धन यादव

 

 

 

 

इन दो-ढाई दशकों में कितना बदल गया है आज का आदमी?. उसकी मनुष्योचित सादगी, निश्छलता, शालीनता, विनम्रता, आदि गुणॊं का तेजी से क्षरण हुआ है. टुच्चागिरी,कमीनगी जैसे उसके आचरण के अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं. व्यक्तिगत लाभ-लोभ ने उसे लगभग अंधा ही बना दिया है. अब वह वही देखना-सुनना पसंद करता है, जिसमें उसका अपना नीजि स्वार्थ छिपा होता है. दया-ममता-करुणा जैसे अर्थवान शब्द, अब उसके लिए कोई माने नहीं रखते. अनीति से पैसा कमाने की अंधी दौड में उसके पारिवार की दीवार में दरारें पडने लगी है.

 


रही सही कसर बाजारवाद ने पूरी कर दी है बाजार मानव का महत्वपूर्ण हिस्सा है. बाजार में शामिल व्यक्ति खरीदारी अथवा बिक्री, दोनों ही सूरत में मुनाफ़े की सोचता है.वर्तमानकाल में भूमंडलीकरण के दौर में बाजार अल्पसंख्यक धनिकों के आधार पर शान से चल रहा है. चारों तरफ़ हाहाकार के शोर सुनाई दे रहे हैं ,लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है.
साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता हेराल्ड पिटर ने अपने भाषण मे इस संकट की ओर इशारा करते हुए कहा था-“राजनीतिकों की रुचि, उपलब्ध प्रमाणॊं के अनुसार सत्य में नहीं होती,बल्कि सत्ता में और उस सत्ता के बरकरार रखने में होती है. उस सत्ता को बनाए रखने के लिए यह जरुरी है कि लोग अज्ञान में पडॆ रहें,कि वे सचाई के अज्ञान में ही जिएं,जहाँ तक की अपने जीवन की सचाई तक के.”

 


संकट के इस भयावह दौर में गजलकारा देवी नागरानी का गजल संग्रह” लौ दर्दे-दिल की” का आना इस बात का गवाह है कि उन्हें अपने आसपास के माहौल से बेखबर नहीं है. उन्हें बराबर इस बात की चिंता सताती है. वर्तमान के हालात पर वे लिखती हैं-

 

 

“ये दुनिया है घबराई महंगी दरों से

परेशां है उस पर वो बढते करों से.”
“वक्त की रफ़्तार देखो

आदमी बेज़ार देखो

 


“उन बेघरों पे मुसीबत सी आ गई धूप उनको जेठ की तिल-तिल जला गई”
कुछ ऎसे मोड आए थे अरमाँ के शहर में खुद से ही जूझ-जूझ कर लडना पडा मुझे

 

 

देवी नागरानी जी की गजले पाठकों को ऎसे भावालोक में ले जाती हैं, जहाँ पहुँचकर उनकी गजलें अपनी न होकर पाठकों की हो जाती है. वे अपना रचना-संसार और संवेदनाओं को, विराट फ़लक पर यथार्थ से जोड देती हैं. यह तभी संभव हो पाता है, जब गजलकार प्रकृति से प्यार करता हो, प्रकृति में अपने प्रिय को देखता हो, प्रकृति को स्वयं के भीतर देखता हो और उसी में गुम हो जाता हो. शायद इसी खो जाने का नाम ही तो ग़ज़ल प्रकृति को किस तरह से सजाया जा सकता है, उसे किस तरह से खुशनुमा बनाया जा सकता है. इस पर वे न अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं-------

 


आज आकाश अच्छाइयों का नया/ भूलकर हर बुराई उसे तू सजा

दुख के बादल बरस कर बने शबनबी/ मुस्कुराह्ट की होंठॊं पे लाली लगा.

 

 

 

नागरानी जी की गजलों को सरलता से आत्मसात होते हुए महसूस किया जा सकता है, जैसे हवा की छुअन को महसूस किया जा सकता है. वे बडी ही कुशलता के साथ उन छॊटॆ-छोटॆ शब्दों में, इतनी गहरी समझ पिरों देती है कि असंभव भी संभव में ढल जाता है. गजलों को बेहतर से बेहतर बनाने का वह तत्व जो जीवन कहलाता है, हमेशा उपस्थित बना रहता है. आपकी गजलों में जीवन का सौंदर्य और असीम संभावना के अनन्त स्त्रोत भी प्रस्फ़ुटित होते हैं.

 

 

गजल काव्य की वह जमीन है-जहाँ हिन्दी उर्दू हो जाती है और उर्दू हिन्दी. आज गजल हिन्दी में ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाऒं में भी कही जा रही है. यहाँ तक अंग्रेजी भाषा में भी गजलें लिखी जा रही है. इंगलैंड के ब्रियान हेनरी, डेनियल हाल, और शेरोन ब्रियान ने अंग्रेजी में गजलें लिखी है. संभव है कि आपकी गजलों का रुपान्तरण अंग्रेजी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी होने लगेगा. यदि ऎसा होता है तो यह सुखद संयोग होगा.

 

 

भारतीय अस्मिता के साहित्यकार गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि साहित्य का उद्देश्य मानव है. इस कथन का तात्पर्य यह है कि साहित्यकार चाहे वह जिस चीज का चित्रण करे, वहाँ जिन्दगी होगी. जिन्दगी का होना ही मनुष्य का होना है.

 

 

प्रसिद्ध साहित्यकार टी.एस.इलियट ने एक जगह लिखा है कि साहित्यकार जो भी लिखता है, वह अपने समय को ही लिख रहा होता है. बिना समय को जाने-समझे बगैर कोई गीत-कविता अथवा गजल नहीं लिखी जा सकती.

 

 

जिगर हों-फ़िराक हों-शमशेर हों या फ़िर दुष्यंत की भाषा हो, वह हमारी परम्परा की भाषा है. इसी परिवेश की बीच की भाषा को गढने का काम देवी नागरनी ने बडी खूबी के साथ किया है. शायद यही कारण है कि उनकी गजलों मे एक विशेष प्रकार की बेचैनी-ताप-उर्जा, भाषा और शिल्प का जो प्रयोग हम देखते हैं, उसमें लयात्मकता के साथ-साथ संप्रेषनीयता भी होती है.

 

 

निःसंदेह गजलकारा के अपने भीतर के कवि ने, यथार्थ और स्वपन के बीच पुल बनाने की कोशिशें की हैं. ग़ज़ल-संग्रह में कुल एक सैकडा गजले हैं. सभी अपने –अपने तेवर और बांकपन के साथ मौजूद हैं. आपका यह आठवां संग्रह है. इससे पहले सात संग्रह प्रकाशित होकर आ चुके हैं, जिसमें चार सिधीं भाषा मं (जिसमें एक भजन संग्रह है), हिन्दी की जमीन पर लिखा जाने वाला यह गजल संग्रह तीसरा है. इससे पहले दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. आपका अंग्रेजी भाषा में एक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. तथा आप देश में ही नही वरन विदेशों में भी सम्मानीत हो चुकी हैं,यह गौरव का विषय है. मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस गजल संग्रह का पुरजोर स्वागत होगा.

 

 

इन्हीं शुभकामनाऒं के साथ समीक्षक:गोवर्धन यादव

 

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