मैं फकीरों की रूह हूँ जिस्म इंसान का भले हों
रंगों से कोई मतलब नहीं श्वेत में सभी भले हों
आडंबर के कायदे क़ानून होते हैं जीने के लिए
रूह से रूह का वास्ता रहा यूँ आसपास भले हों
भूख से वास्ता मेरा बहुत करीबी रहा है दोस्त
मौत से भी दो दो हाथ कर लिए है कष्ट भले हों
शिकायतों ने हमेशा घुटने टेक लिए है मान लो
न मैं झूका हूँ कभी न लकीरें खींची दर्द भले हों
अलख की ज्योत जलाई थी जब से हमने अंदर
ख़ाक हो रहा दिन-ब-दिन साबूत बाहर भले हों
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पंकज त्रिवेदी
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