मेरे निर्बंध व्यक्तित्व की मुखरता को
तुमने कैसे स्वीकार कर लिया है
मैं ताज्जुब में हूँ !
मेरी भावुकता बच्चों सी है और प्यार
पाने की ललक कभी मर्द से बच्चे तक
मैं ताज्जुब में हूँ !
एक पल में मेरी पसंद और नापसंद में
झूलता रहता हूँ मैं और तुम सहती हो मुझे
मैं ताज्जुब में हूँ !
कभी तुम्हारे प्यार के उन्माद को अनदेखा
या खुद ही में खोया हुआ मैं फिर भी तुम हो
मैं ताज्जुब में हूँ !
हर कार्य में चौकसी फिर भी घर में ज़ीरो हूँ
और तुम हो कि कैसे घर को घर बनाये रखती
मैं ताज्जुब में हूँ !
मेरे हर शब्द में खुलता, खिलता हूँ मैं और तुम
उसी अंदाज़ में ढल जाती हो मेरी खुशी के लिए
मैं ताज्जुब में हूँ !
-पंकज त्रिवेदी
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