*ओकलीयाँ - पंकज त्रिवेदी
प्रतीक्षा में लीन होकर
स्थिर तुम्हारी आँखें
मेरी आँखों में स्थिर
उभरती है ओसबिंदु बनकर
मेरे कदमों के ध्वनि के साथ ..!
छोटी सी बेटियों की तनातनी
बदल जाती है शोर में
'पिताजी ...' कहकर चिपक जाने की
लगी हो जैसे होड (प्रतिस्पर्धा)...!
स्नेहभरी माँ की
उंगलियों की नोंक पर
उगती स्पर्श की आँखें
मेरे चेहरे पर ऐसे फेरती
मानों गाँव के
कच्ची मिट्टी के घर की
दिवार पर गोबर से
लीपकर बनाती *ओकलीयाँ... !
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(*ओकलीयाँ = गोबर के लीपने से बनती चित्रकारी)
छवि: अशोक खांट
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