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पेट क्यूं दिया ईश्वर ने?

 


पेट क्यूं दिया ईश्वर ने?   - पंकज त्रिवेदी 
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सुबह चार बजे घर से निकलता हूँ | शहर के पॉश एरिया में बड़े बड़े बंगलों में अंधकार का साम्राज्य छाया हुआ है | कल रात की झमाझम बारिश के बाद पेड़-पौधे मुस्कुराते हुए मुझे देख रहे हैं | प्रत्येक आँगन में उनकी सुगंध फ़ैली हुई है | महंगे वाहनों से बंगले में रही समृद्धि चकाचौंध कर रही है | झूला शांत है, स्थिर है जैसे समाधिस्थ | सड़क पर कुछ आवाजाही शुरू हुई है, खासकर दूध और अखबार वाले | दो रोटी या झूठन देने वालों की इमानदारी से चौकी करने वाले श्वान थोड़े अलसाये हुए से लगते है | आँखें खोलकर देख लेते हैं मेरी ओर और सो जाते हैं | दिनभर दौड़ती श्याम वर्ण सी सड़क नहाकर तैयार हो गयी है | किसी दुकान की सीढ़ी के पास एक आदमी सिकुड़कर सोया हुआ है | कहीं से प्राप्त अनाज की बड़ी सी थैली ही उनके लिए सबकुछ है | चाहें ओढें या पहने | एक श्वान भी उसके पास बड़े भरोसे से सोया हुआ है | 
मुड़ते समय उसी रास्ते से पैदल गुज़रते हुए देखता हूँ | नगर निगम की महिला कर्मचारी झाडू लगा रही थी | एक बंगले से बड़ी सी तोंद वाला आदमी आँगन की लाईट जलाता है | आँगन वोही है, खुशबू वाला, झूला समाधिस्थ | पेड़-पौधों की शोभा | कोयल की कूहू | वो आदमी मुँह में टूथब्रश लेकर मुख्य गेट तक आता है | दूर बैठे श्वान आँखें फाड़कर उनकी ओर देखते है, आशाभरी नज़रों से | आज रविवार है | बंगले से कुछ गज की दूरी पर उस दुकान की सीढ़ी के पास सोया हुआ वो आदमी... सेठ ने मुश्किल से झुककर एक पत्थर फेंका उस तरफ | पत्थर उन्हें तो न लगा मगर दुकान की दिवार से टकराता हुआ मेरी तरफ आया | मैं वहीं थम सा गया | चुपचाप देखता रहा | बड़ी तोंदवाला बोला; "सॉरी ! आजकल चोरी बहुत होती है इस एरिए में... पता नहीं ऐसे लोग कहाँ से आ जाते हैं.. |" 
मैं मुस्कुराया | वो आँखें मिला न पाया तो वापस चला गया अपने सुरक्षित बंगले में | सोच रहा हूँ, जिसके पास पहनने-ओढ़ने के लिए अनाज की खाली थैली ही हो, मन-शरीर से कमज़ोर हों, उसे पेट क्यूं दिया ईश्वर ने? 
- पंकज त्रिवेदी       
27, July, 2014


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