Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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रंग बदलता मौसम

 

 

 

“रंग बदलता मौसम” ज़िंदगी की बहार और ख़िज़ाँ के बीच का सफर

subhas

 

 

साहित्य और समाज का आपस में गहरा संबंध है , जिनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि साहित्य अपने काल का प्रतिबिंब है. जिस समाज में हम रहते है, उसीका हिस्सा बन जाते हैं. समाज के आसपास की समस्याओं को, विडंबनाओं को कथा या कहानी की विषय वस्तु बनाकर, पात्रों के अनुकूल उनके विचारों को शब्दों शिल्पी की तरह तराश कर मनोभावों को अभिव्यक्त करते हैं.


जीवन एक प्रेणादायक स्त्रोत्र है, हमेशा बहने वाली नदी की तरह निरंतर, निष्काम, कल-कल बहता हुआ. अन्चुली भरकर पी लेने से कहाँ प्यास बुझती है? ऐसे ही मानव मन अपनी परिधि के अंदर और बाहर की दुनिया से जुड़ता है तो जीवन की हकीक़तों से परिचित होता है. दुःख-सुख, धूप-छाँव, पारिवारिक संबंध, रिशतों की पहचान,अपने पराये के भ्रम जब गर्दिशों के उत्तार-चढ़ाव की राहों पर जिए गए तजुर्बात बनकर हमारी सोच को रोशन करते हैं तो साफ़-शाफाक़ सोच पुरानी और नयी तस्वीर को ठीक से देख पाती है. यह परिपक्वता तब ही हासिल होती है जब आदमी उन पलों को जीता है, भोगता है.


ऐसी ही पेच्चीदा पगडण्डी से गुज़रते हुए, मन को टटोलती आस की तितलियाँ जब रंग-बिरंगे पंख पसारे सोच के साथ अनेक दिशाओं में विचरती है तो मनमानी करता बांवला मन कितनी उमीदें बांध बैठता है, उन क्षण भंगुर पलों से जो दूसरे ही पल रेत के टीले की तरह भरभरा जाते हैं. ऐसा ही कुछ हिन्दी –पंजाबी से निष्ठावान सेवी श्री सुभाष नीरव जी की कहानी "रंग बदलता मौसम" पढ़ते हुए महसूस किया वही शब्दों में बिम्ब बन गया। किरदार मनीष के साथ जो हुआ, वो दोस्ताने को रिशतों की कच्ची पगडण्डी पर बसना चाह रहा था. पर अचानक जब सपनों के महल धराशायी हुआ तो साथ उनके क्या-क्या टूटा, पंकज समझ नहीं पाया, न कह पाया. बस इतना था कि गाड़ी चलती रही और वह जहाँ खड़ा था वहीँ थम गया . यहाँ औरत के चरित्र को भी उजगार करते हुए ये शब्द " वो तो बड़े भाई का कोई परिचित है" अपनों को बेगाना बनाने में बड़ी सशक्तता और सफाई से अपना असर छोड़ गए. स्वार्थ के सिंघासन पर बैठे लोग क्या जाने कि ठेस लगना क्या होता है, चूर चूर होकर बिखरना क्या होता? शायद खिलवाड़ करना उनकी फ़ितरत में शामिल होता है. इस तरह की कहानियों से सामाजिक प्रवाह में नया मोड़, नई दिशा दर्शाने की क्षमता समाई होती है.


सुभाष जी की लेखनी की खूबी उनके शब्दों की अभिव्यक्ति से, गुफ़्तार से, ज़ाहिर होती है जहाँ उनके अनकहे तेवर अपने आप को पारदर्शी बना कर ज़ाहिर करते हैं. सँवाद कम पर पुरअसर इस कद्र कि कल्पना और यथार्थ के फासले कम होकर गुम से हो गए हैं. कहानीकार अपने किरदारों के जीवन में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि जैसे कोई आप-बीती जग-बीती बन कर प्रवाहित हो रही है. यह कहानी सिम्रतियों और वर्तमान की अनुभूतियों की सुंदर पारदर्शी अभिव्यक्ति है, जिसमें मार्गदर्शकता का संकेत भी शामिल है. मानव के मनोभावों को अभिव्यक्त करने की कलात्मक क्षमता भी कहानी को रुचिकर बना देती है, और पाठक को और आगे क्या होता है, यह जानने की उत्सकता को भी बरक़रार रखती है. पढ़कर जो महसूस किया वही शेर में ढाल गया: कहा किसने इन कोरे कागजों से कुछ नहीं मिलता कहानी पढ़ने से मिलती कभी किरदार की खुशबू!!

 


देवी नागरानी

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