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साहित्य का ध्वनि तत्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग

 

व्यंग्य संग्रह – “साहित्य का ध्वनि तत्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग”
लेखक: कमलानाथ
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली, नई दिल्ली-110 030, पेज 148, मूल्य रु. 300, प्रथम संस्करण 2015, ISBN 978-81-7408-768-3.

 

 

 

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काफ़ी अर्से के बाद हाल ही में एक नया व्यंग्य संग्रह पढ़ने को मिला है, जिसने व्यंग्य की बारीकियों को न केवल सुन्दर शब्दविन्यास द्वारा, बल्कि चुनिन्दा ‘विषयों’ में समेटे हुए मनोरंजन को पूरे बहाव के साथ उकेरा है। प्रथमदृष्ट्या एक दूसरा सुखद अनुभव संग्रह में आम उर्दू के अधिकांश शब्दों को नुक्तों के साथ देख कर भी हुआ। लेखकों और प्रकाशकों की सुविधा के लिए हालाँकि हिंदी में यह लगभग स्वीकार किया जा चुका है कि उर्दू के शब्दों को देवनागरी में बिना नुक्तों के साथ भी लिखा जा सकता है, जैसा कि हर पत्र-पत्रिका में दिखाई देता है, पर उन्हें देख कर ‘प्योरिस्ट्स’ को कहीं न कहीं निराशा तो होती ही है। जिस तरह उर्दू शब्दों का अशुद्ध उच्चारण सुनने में कर्णकटु लगता है या जैसे फ़्रैंच शब्द बिना ‘एक्सेन्ट’ के खलते हैं, मैं समझता हूँ उर्दू के शब्दों में नुक्ते नहीं लगे होने से उन्हें पढ़ने में भी वही अधूरापन झलकने लगता है। पर यह मेरी व्यक्तिगत राय है और ज़रूरी नहीं कि सभी इससे सहमत हों। इस दृष्टि से कुछ पत्रिकाएं निश्चित ही बधाई की पात्र हैं जो अपने कलेवर में इस ‘शुद्धता’ को बरक़रार रखे हुए हैं।
संग्रह में लेखक ने सबसे पहले तो यह प्रश्न पूछते हुए ही चुटकी ले ली कि ऐसी पुस्तकों में ‘भूमिका’, ‘दो शब्द’ वगैरह क्यों लिखे या लिखाए जाते हैं। अपनी इस पुस्तक में भूमिका ‘के विरुद्ध’ उन्होंने कई कारण बताये हैं जो दिलचस्प हैं और अंत में पाठकों को ही भूमिका लेखक की बजाय बेहतर समीक्षक बताते हुए उन्हें यह संग्रह समर्पित किया है।
सभी व्यंग्य इस संग्रह में जिस सहजता से बहते हैं, उससे हिंदी के सामर्थ्य की तो पुष्टि होती ही है, पाठक को यह कहीं नहीं लगता कि उसमें कही बात को किसी दूसरी तरह भी कहा जा सकता था। व्यंग्यों को कहने की शैली और मनोरंजक प्रस्तुतीकरण से पाठक की रुचि लगातार बनी रहती है। जो पाठक शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे व्यंग्यकारों के प्रशंसक रहे हैं, उन्हें तो निश्चित ही इन व्यंग्यों को पढ़ कर बेहद आनंद आएगा। व्यंग्य में प्रयुक्त साहित्यिक शब्दों का प्रयोग कहीं भी भारीपन नहीं लाता, बल्कि आम भाषा के उर्दू शब्दों (जो नुक्ते नहीं लगे होने पर हिंदी के मान लिए जाने चाहिएं) के साथ मिल कर सहज गतिशीलता देने का काम करता है जो कमलानाथ के लेखन की विशेषता कही जा सकती है।
कमलानाथ (जन्म 1946) एक वरिष्ठ लेखक हैं और एक लब्धप्रतिष्ठ इंजीनियर की कलम से ऐसी सुखद अहसास देने वाली सामग्री निश्चित ही प्रशंसनीय तो है ही। साठ से अस्सी के दशक तक उनकी कहानियां और व्यंग्य सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलते थे। ऐसा लग रहा है फिर उन्होंने अगले लगभग तीस वर्षों तक हिंदी लेखन से ‘शीत समाधि’ ले ली, शायद दूसरे (इंजीनियरिंग) क्षेत्र के अपने बड़े उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए। जैसा उनके परिचय से पता लगता है, इस बीच अंग्रेज़ी में उनका तकनीकी लेखन जारी था और तकनीकी लेखों के अलावा वेदों, उपनिषदों आदि में पर्यावरण, जल, पारिस्थितिकी जैसे विषयों पर उनके लेख भी विश्वकोशों में छपे। 2010 से पुनः उनकी कहानियां और व्यंग्य पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल रहे हैं।
इस संग्रह में बीस व्यंग्य संकलित हैं, जो ‘बाबाओं’ के नाम पर आजकल के ढोंगी सफ़ेदपोशों के करतबों को उखाड़ते हैं, दफ़्तरों में दिखाई देने वाली अकर्मण्यता पर प्रहार करते हैं, बुद्धिजीवियों के सम्मेलनों में होने वाले ज्ञानपूर्ण बहस-मुबाहसों को मनोरंजन की ऊंचाइयों तक पहुंचा देते हैं, देशी विदेशी कवियों के गुणों और कार्यकलापों का ‘बखान’ और उनकी विशिष्ट ‘श्रेणियों’ का ‘दिग्दर्शन’ कराते हैं, राई का पहाड़ बना देने वाले समाचारों की खिंचाई करते हैं और आम ज़िंदगी में होने वाली साधारण सी घटनाओं को भी बेहद दिलचस्प तरीके से पेश करते हैं।
संग्रह के तीन व्यंग्यों का खासतौर से ज़िक्र करना ज़रूरी है। आजकल तथाकथित ‘बाबाओं’ की संख्या में जिस तरह नाटकीय वृद्धि हुई है और किस्म किस्म के ‘बाबाओं’ का अचानक ही प्रादुर्भाव हुआ है, उस पर मनोरंजक ढंग से प्रहार करता हुआ एक व्यंग्य “बाबा तेरे रूप अनेक” इन ढोंगियों की अद्भुत सम्मोहक शक्ति का वर्णन करता है। व्यंग्य में ऐसे बाबाओं का ज़िक्र व्यंग्यकार द्वारा कथित ‘ढपोल पंथ’ नामक ‘मूल पंथ’ की पांच शाखाओं या पंथों के अंतर्गत किया गया है – समागम पंथ, भोग पंथ, गपोल पंथ, खगोल पंथ और आसन पंथ। ये लोग किस तरह अपनी लफ़्फ़ाज़ी और फ़रेब से भोलेभाले लोगों को फाँस कर अपनी जेबें भरते हैं, उसका रोचक हवाला इस व्यंग्य में दिया गया है।
दूसरा व्यंग्य ‘हिंदी साहित्य का रेवड़ी युग’ ऐसे लेखकों, संस्थाओं आदि पर बड़े मनोरंजक अंदाज़ में कटाक्ष करता है जिसमें नए लेखक जल्दी से जल्दी कोई न कोई पुरस्काररूपी ‘रेवड़ी’ बटोर कर ‘प्रतिष्ठित’ बन जाने की जुगत में लग जाते हैं और कई संस्थाएं भी सम्मान, पुरस्कार आदि ‘प्रदान’ करने में अंधे की तरह ‘अपने अपनों’ को रेवड़ी बांटने जैसा काम करती हैं या प्रायोजित पुरस्कारों का ‘आयोजन’ करती हैं। व्यंग्य में कहा गया है कि सन 2000 के बाद इस तरह का माहौल ज़्यादा देखने को मिला है और लेखक ने इस युग को हिंदी साहित्य का ‘रेवड़ी’ युग ‘निर्धारित’ किया है।
संग्रह के शीर्षक ‘साहित्य का ध्वनि तत्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग’ के व्यंग्य में लेखक और उनके उर्दू के विद्वान मित्र का सामना एक ऐसे ‘स्वनामधन्य’ साहित्यकार से होता है जो किसी अनजाने विषय पर भी मोटे और भारी शब्दों का विस्फोट करके ही अपने आप को ‘चिन्तक’ और ‘विद्वान’ होना समझता है और लोगों पर वैसा ही भ्रम डाल देता है। हालाँकि बिग बैंग की तरह ये शब्द धमाका तो बहुत करते हैं और किसी भी आम श्रोता या पाठक को प्रभावित कर सकते हैं, पर वास्तव में विषयवस्तु के सन्दर्भ में उनका कोई अर्थ नहीं होता या कुछ भी हो सकता है। उदाहरण के लिए ‘साहित्य चर्चा’ के दौरान ‘साहित्यकार’ महोदय कहते हैं- “ …प्रत्यभिज्ञादर्शन का प्रमाण प्रमेयात्मक हो सकता है, किन्तु त्रिवृत्करणवाद का वैशिष्ट्य और विकीर्णन का तुरीयातीत स्वरूप अविनाभाव का सम्बन्ध नहीं बताता…..जुगुप्सित चिंतन का तथ्य सत्यापन की स्पष्टता की संभावनाओं को नहीं नकारता, किन्तु लब्धप्रतिष्ठ वैयक्तिक ऊर्जा लिंगमूलक सूक्ष्मतर आभ्यंतरिक मनोभावनाओं का प्रदर्श होती है। इसीलिए विप्रयोगात्मक भावानुवाद प्रत्यक्ष सम्वेदनाओं का प्रतिरूप नहीं बन पाता, क्योंकि चिन्तनात्मक संश्लिष्टता उन सभी कालगत व्यापकताओं की क्षुद्रवृत्त आवृत्ति ही है। विश्वानुभूति सम्प्रसूत है बुद्धि की प्रामाणिकता और संज्ञानधारा से। यही उसका दिक्कालातीत स्वरूप है और प्रतिचैतन्य की स्वरूपभूता प्रकृति है…”। अंत में उर्दूदां मित्र उस साहित्यकार को उर्दू में उसी की घुटी इस तरह पिला देते हैं – “फ़िज़ाओं का दीदार, रूबाइयों की ख़ुशबू के मानिन्द है, फिर फ़िशारे ज़ओफ़ में गुलख़न की नुमूद क्यूं? यह दुनिया बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल नहीं है मगर फिर भी शब-ओ-रोज़ ज़ओमे-जुनूं सज़ा-ए-कमाले सुख़न क्यूं है? बेनियाज़ी ख़जालत का सबब बन जाती है जिसे कोई बेहरम ही ख़ामा ख़ूँचकाँ होकर समझ सकता है।…. आपका फ़लसफ़ा बेहतरीन है, क़ाबिले तारीफ़ है और आपकी शोख़ि-ए-तहरीर, ग़ालिबन सरहदे इदराक़, या यूं कहें, फ़ित्ना-ए-महशर है”। यह ऐसे ही तथाकथित ‘साहित्यकारों’ और ‘विद्वानों’ पर किया गया कटाक्ष है, जो न केवल मज़ेदार है बल्कि गुदगुदाने वाला रोमांच भी भर देता है। इसमें संस्कृतनिष्ठ हिंदी और उर्दू के गंभीर और फटाकेदार शब्दों का चयन व्यंग्यकार की विशाल शब्दावली और अनुभव को दर्शाता है।
अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस व्यंग्य संग्रह का लेआउट काफ़ी आकर्षक है। सबसे अच्छी बात यह है कि ज़्यादातर किताबों में जगह जगह दिखाई दे जाने वाली वर्तनी की अशुद्धियाँ इस पुस्तक में शायद ही हों।
कुल मिला कर रुचिशील पाठकों के लिए निश्चित ही यह व्यंग्य संग्रह पढ़ने योग्य है। ताज़गी देने वाले इस प्रयास के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

 

 


डॉ. पूर्णेन्दु वसिष्ठ
त्रिवेणी मार्ग, इलाहाबाद-211 003 (उ.प्र.)
संपर्क: E-Mail: Poornendu.Vasishtha

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