सवाल की तलाश में जो अपने घरों से निकले,
ख़ामोशी इक जवाब मिला उनको
कविता,संवेदनशील हृदय की उपज होती है जिसका श्रंगार करती है रसात्मकता एवं लयात्मकता। व्यक्तिगत अनुभूतियों के साथ सामाजिक जीवन का यथार्थ मिलकर श्रेष्ठ कविता को साकार करता है। जिस तरह गहरे पानी में फेंका गया कंकर हलचल का सिलसिला शुरू करता है,वैसे ही समाज में,अपने आसपास की कुनीतियों से पीड़ित होकर जन-मानव जीवन की विसंगतियों से हार मान बैठे हैं,जबकि एक नन्हा दीपक घनघोर अंधेरे को पराजय नहीं मानता। यहां मुझे शाहिद नदीम का यह शेर याद आ रहा है -
तिरे खयालों की किरणों से जु़ल्मतें कम हों,
तिरे वक़ार से दुनिया में खुशबुएँ फैलें
डा. कृष्ण पांडेय अपने शोध संस्करण‘प्रेमचंद,विचारधारा और साहित्य’में लिखते हैं -‘लेखक का व्यक्तिगत जीवन उसकी विचार प्रतिक्रिया का निर्माण हेतु होता है’.सच ही तो है,परिपक्व मन की परिभाषा में भीतर की हलचल को बाहर के शोर में अभिव्यक्त करने वाली लेखिका विम्मी सदारंगाणी ने भी अपनी इस नवीनतम कृति‘सवाल की तलाश में’अपनी निशब्द सोच को शब्दों के सहारे अभिव्यक्त करते हुए लिखा है -
‘कविता नहीं है यह / बाहर जो आता है / वह कविता नहीं / बाहर आते हैं शब्द / कविता भीतर ही जी रही होती है।’
कविता अंदर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है जिसकी प्रमुखता और प्रखरता करीने से सजाए हुए शब्दों से आती है। मन के सागर में जब अहसास की लहरें हलचल मचाती हैं तब भावविभोर होकर अपने मनोभावों को टटोलते हुए,अपने वजूद की तलाष में कवियत्री यह महसूस करती है कि वह ज़िंदा है,तब तक,जब तक ज़मीर सौदागरों की चैखटों पर गिरवी नहीं रखा गया हो,तब तक वह धड़कता है,सांस लेता है और जि़ंदा रहता है। आइये,उनकी इस बानगी में झांकें,और उनके कथन की सच्चाई को टटोलें,जब वह लिखती हैं,
रास्ते पर दौड़ती गिलहरी को देखकर वह ब्रेक लगाती है
अपनी किताबों के बीच चिड़िया को घर सजाने देती है
कुत्ते के पिल्ले की कूं कूं सुनकर दौड़ती हुई उस दिशा में जाती है -
तब उसे लगता है कि कोई उसके अंदर जि़ंदा है,सांस ले रहा है,फिर उसका मन अपने अनुभव की सीमा को यथार्थ से जोड़ता है -
तब महसूस होता है / मेरे अंदर कोई जि़ंदा है
तब मन मानता है / कि मेरे अंदर कोई सांस ले रहा है
तब भरोसा होता है / कि मैं जि़ंदा हूं।
यहां काव्य स्वरूप और सुंदरता एकाकार हुई है। शब्द और अर्थ भी उसी दायरे में यूं लग रहे हैं जैसे कवियत्री ने अर्थ ही प्रकट किये हैं। यह पाठक के मन में धंसती हुई बेलौस अभिव्यक्ति है जिसके लिए विम्मी जी को साधुवाद! बच्चन जी का कथन कि, ‘कवि समाज का पथ प्रदर्शक होता है’। सच के सामने आईना है यह अभिव्यक्ति। बड़ा कलाकार वही होता है जो कला पर हावी हो,विम्मी जी उसी राह की पथिक हैं इसमें कोई दो राय नहीं।
आज की कृत्रिम दुनिया में हर जगह समझौते हुए जा रहे हैं। जहां सच का गला घोंटा जा रहा है,वहीं फरेबों की साज़िश दिल और दिमाग़ में तक़रार बरक़रार रखती है। सांसों की घुटन को महसूस करते हुए कवियत्री का अंदाजे़-बयां सुनिए -
‘मैंने तो तुमसे कुछ भी नहीं पूछा
बस,सिमट गई तुम्हारी बाहों में
तुम्हारा कसता आलिंगन
मैंने समझा प्यार तुम्हारा
पता ही नहीं चला
कब मेरा दम घुट गया!’
रिश्तों की नींव जब आसपास की गर्दिशों से जूझकर खोखली होती है,हिलने लगती है तो मानव मन अपनी ही यादों के आकाश में उड़ते-उड़ते थका सा,किसी‘अपने’के स्नेह का आंचल ओढ़ लेता है;फिर चाहे वह ममता का हो,अपनी ही औलाद की मुस्कराहट का गलीचा हो,वह अपने कोमल,नर्म स्पर्श से हर ज़ख़्म का मरहम बन जाता है। शायद इसीलिए विम्मी जी ने लिखा है -
‘अपनी मासूम मुस्कराहट का एक हिस्सा
मुझे दे देती थी वह।’
मन की परतों में एक और भी नगरी है,जहां यह मन कभी व्याकुल होकर,कभी व्यथा की छटपटाहट से समाधान पाने की चाह में कुछ पल उसी छांव में बिता देता है,जहां सच और झूठ का अंतर मिट जाता है। आईना और अक़्स आमने सामने होते हैं। बबूल के कांटे भी कवि की नज़र से नहीं छुपते। किसी ने खूब कहा है -‘जहां न पहुंचे रवि,वहां पहुंचे कवि’।विम्मी की पैनी नज़र समीक्षक बनकर सच और झूठ के अंतर की दुविधाजनक स्थिति का पर्दाफ़ाश करती है,हर आवरण को बेनक़ाब करती है। उसकी गहरी दृष्टि मंथनोपरांत सोच को शब्दों में यूँ सामने ले आई है. -
‘बेल / बबूल पर छा गई है
बबूल के कांटे / छिप गए हैं।’
आज के इस वर्तमान दौर में करूणा,संवेदना,भावकुता,अपनापन,सब लुप्त हो गया है,स्वार्थ ही स्वार्थ डेरा डाले बैठा है। यहां कवियत्री अपनी भेदती नज़र से,सादगी से सजी शातिरता को भी पछाड़ देती है और अपनी बानगी से छुपे हुए गुनाह को बेनक़ाब करते हुए लिखती है -
तुमने / गुलाब तोड़ लिया / और
उसकानाम मोगरा रख दिया /
अब पूछते हो /
तुमने क्या गुनाह किया! /
निराशा की ज़मीन पर आशाओं के बीज बोना,सत्य के दायरे में असत्य के बीज उकेरने वाली सिन्धी और हिन्दी की बहुभाषी प्रतिभा की कलमकार विम्मी सदारंगाणी,अमन और चैन का स्वर्ण संदेश लेकर उम्मीदों की किरणों से हर जात-पात के भेदभाव को भेदते हुए कहती है -
शांति आएगी एक दिन / और वह होगी आखि़री शांति।
बस,एक बात कहनी है आपसे
मुझे मरने मत देना / मैं ही हूं आपकी आखि़री उम्मीद।
ऐसी मुबारक उम्मीदों के चराग़ों को रोशन रखने वाली कवियत्री को मेरी बधाई और शुभकामनाएं।
समीक्षक: देवी नागरानी
९.डी॰कॉर्नर व्यू सोसाइटीए १५ध् ३३ रोडए बांद्रा ए मुंबई ४०००५०,फ़ोन9987938358/
काव्य संग्रह: सवाल की तलाश में,लेखिका: विम्मी सदारंगानीपन्ने.112,मूल्य रु॰ १५०,प्रकाशकः विभा प्रकाशन
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