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शब्दों की शिलाकृति - धूप का टुकड़ा

 

शब्दों की शिलाकृति - धूप का टुकड़ा

dhupkatukra

वक्त की शाखों से /गिरते हैं पत्ते
दिनों के /आज, कल परसों
हर पत्ते के साथ / मुरझाता जाता है मन


आज की कवितायें काव्य-शिल्प, और काव्य-भाव की समरस भूमिका तोड़ती हैं और व्यवस्था की प्रतिगामी शक्तियों के प्रति समवेत रूप से हस्तक्षेप करती हैं. यूस्टेन की जानी मानी साहित्यकारा इला प्रसाद की कवितायें मानव संघर्षों के इतिवृत्त को लक्षित करती हुई आगे बढ़ती
हैं, जहाँ सुख के क्षण और दुःख के क्षण भी हैं . वहाँ अश्रु भी है, मन का खिलना भी है, मुरझाना भी. जहाँ असफलता के साथ-साथ हौसला है, वहीं गिर कर उठने का साहस भी. स्त्री मन को टटोलती हर करवट से वे वाक़िफ़ हैं और बख़ूबी अपनी लेखन कला के हुनर से ख़ुद को ज़ाहिर करती है, कभी कहानी में तो कभी कविता में. यही इला प्रसाद की रचनाओं में यह खासियत है. हर रचना में कोई न कोई तत्त्व ऐसा है जो उसके भावार्थ के गर्भ में एक सच्चाई दर्शाता है. लगता है इला जी ने जिंदगी के महाभारत को लगातार जाना है, लड़ा है और शब्दों की शिलाकृतियों के माध्यम से अपनी जद्दो-जहद को व्यक्त किया है. ऐसी ही 'दरार" नामक इस रचना के अंश में उसके भावार्थ से जुड़िये और महसूस कीजिये..
सच की ज़मीन पर खड़ी/ विश्वास की इमारत तो/ कब की ढह गई
अब तो नजर आने लगी है/ बीच में उग आई/ औपचारिकता की दरार .......
इनकी रचनाधर्मिता पद-पद पर मुखर है और वही इन्हें बुलंदियों पर भी पहुँचाती है. उनका यह पहला काव्य संग्रह "धूप का टुकड़ा " अनेकों टुकड़ों में बँटा है जिसके हर ज़र्रे से इला का बहुआयामी व्यक्तित्व व कृतित्व झलकता है. हर मोड़ पर छिड़े हुए महाभारत से जूझते हुए लगातार आगे और आगे अपनी यात्रा पर चलते हुए वे कहती हैं...
निराशा और पराजय का साथ करना
मुझे अच्छा नहीं लगता/इसीलिए यात्रा में हूँ
अँधेरे में उजाला भरने/और पराजय को जय में बदलने के लिए
चल रही हूँ लगातार
अँधेरे को पराजित करने की दृढ़ता ही शायद रोशनी को उसके गर्भ से बाहर ले आये, जैसे अपने अँधेरे अतीत से छुटकारा पाते ही रोशन भविष्य सामने आ जाता है, शायद इसलिये कि अंधेरा उजाले को बहुत समय तक छुपा कर नहीं रख सकता. शायद अपनी यात्रा को अपनी मनचाही मंज़िल तक ले जाने वाला हर क़दम अपनी पुख़्तगी से परिचित है.| निराशा की चौखट पर आस का दीपक जलाए हुए वह आगे कहती हैं....
क्या पता इस बार
मेरे हिस्से का सूरज / मेरी पकड़ में आ जाए
अँधेरे का यह सफ़र / निर्णायक हो जाय
सोच निष्ठावान है, प्रगति की राहों पर चल पड़ी है, पराजय स्वीकारना उसके स्वभाव के विपरीत है. संघर्ष अपना चलन कहाँ बदलता है. इस "ईंधन" नाम की कविता में पहाड़ी से दूध के दरिया निकाल पाने की शिद्धत देखिये....
वक्त की आग ने /सब जलाकर राख कर दिया
अब नया ईंधन जुटाना ही पडेगा / जिंदगी के लिए
यहाँ 'धूप का टुकड़ा' कविता का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगी. यह कविता उनकी रचनात्मक प्रतिभा एवं उर्वर मष्तिष्क की अभिनव उपज है जिससे उनकी सम्पूर्ण कविताओं की स्तरीयता एवं विलक्षणता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. वह धूप का टुकड़ा उसके चेहरे से थिरकता हुआ, उसके आँसू सुखाता हुआ आगे बढ़ जाता है. छायावाद की यह सुन्दर प्रस्तुति देखिये...
वृक्षों और दीवारों से होता हुआ / धूप का एक छोटा टुकड़ा /
मेरी बगल में आकर बैठ गया था / मुझसे पूछे बिना |
वह आगे बढ़ गया था
मेरी उदासी गहनतर हो गयी थी / जिसमें अब उसके जाने पर
अकेलेपन का अहसास भी जुड़ गया था
धूप का वह टुकड़ा सोच की ऊँचाइयों से उतर कर जमीं पर बस जाने को आतुर है और हाँ! अक्षरों को आंच में तपना सिखा देगा. वक्त ki कसौटी पर चढ़ कर खरा उतरना, अपने बचाव के लिए धूप में चमकना सिखा देने में सक्षम है.
वक्त का दीमक / मेरे अक्षरों को चाट जाए
इससे पहले ही दिखला देनी होगी इन्हें / दोपहर की धूप
प्रवासी साहित्यकार इला प्रसाद अपनी इन समस्त रचनाओं के माध्यम से सकारात्मक चिंतन को ईमानदारी, निष्ठा एवं अटूट साधना से काव्य सृजन को सार्थक दिशा में ले जाने में सफल हुई हैं क्योंकि वह अपने अक्षरों की टकसाल को संभाल कर रखने की कायल हैं. वह आगे कहती हैं...
वक्त ने चाहे तुम्हारे होंठ सिल दिए हों
तुम्हारी हँसी के हस्ताक्षर / अब भी
जिंदगी की किताब के पिछले पन्नों में बंद हैं
डा॰ किशोर काबरा ने एक जगह लिखा है - "सच्ची कविता की पहली शर्त यह है कि हमें उसका कोई भार नहीं लगता. जिस प्रकार पक्षी अपने परों से स्वच्छंद आकाश में विचरण करता है, उसी प्रकार कवि "स्वान्तः सुखाय" और "लोक हिताय" के दो पंखों पर अपनी काव्य यात्रा का गणित बिठाता है".
कविता में हमारे राग-विराग, हास्य-रुदन सब गुंथे रहते हैं.| प्रत्येक कवि बीते हुए कल के सामने नवोदित होता है, चलते हुए समय के सामने समकालीन होता है और आने वाले कल में कालजयी होता है. ऐसी ही संभावनाएं इला प्रसाद की रचनात्मक निष्ठा से कही गई उनकी "कालजयी" कविता के अंश में देखिये...
घर तो हम सब के रेत के हैं /और सागर तट पर
लहरों की पहुँच के अन्दर बने हैं
सोच की गहराई और गीराई शब्दों से विस्फोटित हो रही है. नये विचारों को नये अंदाज़ में बाँधना कोई आसान काम नहीं. इला के जीवंत ग्यान सागर का यह छलकता हुआ पैमाना अपनी सश्क्तता से कलात्मक अभिव्यक्ति द्वारा बिंब का सकारात्मक पहलू दर्शा रहा है.
इला की कविताओं में नारीवादी स्वर भी प्रमुखता से उभरते हैं. वे स्त्री को घर की सीमाओं में बंद नहीं देखना चाहतीं चाहे सड़क पर खतरे बहुत हों. "स्त्री-विमर्श" जैसे शब्दों से परहेज करती हुई, अपने स्त्री होने के प्रति पूर्ण सजग एवं उसकी सीमाओं और विशेषताओं को स्वीकारती हुई वे "लड़कियों से" कहती हैं
क्या तुमने महसूसा नहीं अभी तक
कि अपराध और अँधेरे का गणित एक होता है ?
और अन्धेरा घर के अन्दर भी कुछ कम नहीं है .....
डरना ही है तो अँधेरे से डरो/ घर के अन्दर रहकर
घर का अँधेरा बनने से डरो
उनकी कविताओं में विचार और भाषा का सुन्दर संतुलन है. सरल शब्दों में सशक्त अभिव्यक्ति आकर्षित करती है एवं पाठक के मन को छूने में सक्षम है. संक्षेप में यह किताब आद्यांत पठनीय बन पड़ी है जिसके लिए लेखिका एवं प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं. इला जी को उनकी साहित्य यात्रा के लिए मेरी अनेकों शुभकामनाएं !


देवी नागरानी, न्यू जर्सी. dnangrani@gmail.com
काव्य सँग्रहः धूप का टुकड़ा, लेखिकाः इला प्रसाद, पन्नेः ८८, मूल्यः रु १२५, प्रकाशकः जनवाणी प्रकाशन, ३०/३५/३६, गली न॰ ९, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२

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