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तुलसीदास का चिंतन

 

प्रभुदयाल मिश्र

 

 

अखिल भारतीय ख्याति के साहित्य सर्जक और प्रख्यात कवि डा परशुराम शुक्ल की सद्य- सृष्टि ‘तुलसीदास का चिंतन’ उनके पांच – ‘सौंदर्य चेतना’, ‘दार्शनिक चिंतन’, ‘मानस में सामाजिक आदर्श और यथार्थ’, ‘तुलसीदास की नारी भावना’ तथा ‘चित्रकूट में सभा चिंतन’ शीर्षक के अत्यंत विचारोत्तेजक निबन्धों का संकलन है. तुलसी के दार्शनिक चिंतन की मानस और विनय पत्रिका पर आधारित सन्दर्भों के परिप्रेक्ष में विवेचना करते हुए लेखक का निष्कर्ष है-

‘ तुलसीदास जीव को मूलतः चेतन और निर्मल मानते हैं. उनकी इस मान्यता में शंकराचार्य के अद्वैतवाद की झलक है और जब वे जीव को चेतन और निर्मल मानने के साथ उसे नित्य मानते हैं तब रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत के प्रभाव को निरूपित करते हैं. यदि गोस्वामी जी की दार्शनिकता को किसी वाद की पहचान देना आवश्यक है तो यह कहा जा सकता है कि वे विशिष्टाद्वैतवादी थे.’ प्रष्ट ४३

तुलसी की नारी संबंधी आम भ्रान्ति को दूर करते हुए विरही जी लिखते हैं –

‘ रामचरित मानस में जो उक्तियाँ नारी-सम्मान के प्रतिकूल हैं वे ऐसे पात्रों द्वारा कही गयी हैं जो या तो बहुत व्याकुल हैं या बहुत भयभीत हैं. ‘जिमि स्वतंत्र भये बिगरहि नारी’ की प्रष्ठभूमि में शूर्पनखा का चरित्र ही रहा होगा. ..... कवि ने (यह भी) कहा-

परम सती असुराधिप नारी, तेहि बल ताहि न जितब पुरारी’ प्रष्ट ९९

यद्यपि अपनी भूमिका में लेखक ने तुलसी को विनय से उद्धृत करते हुए इस तथ्य पर जोर दिया है कि घर में दीपक की बात करने से नहीं दीपक जलाने से प्रकाश होगा-

वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुण भाव पार न पावे कोई

निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहि होई

पुस्तक में दार्शनिक चिंतन संबंधी आलेख में ईश्वर संबंधी सनातन अवधारणा को शाष्त्रीय आधार पर बहुत विस्तार से व्याख्यायित किया गया है. इससे यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि तुलसी ने समग्र भारतीय मनीषा का समावेश किया था.

‘रामचरित मानस और विनय पत्रिका में प्रतिपादित धार्मिक विचारों में इतनी उदारता और व्यापकता है कि शैव, पुष्टि मार्गी और शाक्त सिद्धांत उनमें सरलता से समाहित हो गए.’ प्रष्ट -६७

पुस्तक में कुछ प्रूफ की त्रुटियों की और ध्यान बरबस चला जाता है- प्रष्ट ३० में ‘अमवादों’, ‘सतसंग’ आदि शब्द खटकते हैं.

इसी तरह प्रष्ट ४० में माया की आदिशक्ति के रूप में विवेचना करते हुए लेखक ने माया की काम, क्रोध, अहंकार लालसा आदि रूपों में जिस लंबे सन्दर्भ – मोह न अंध कीन्ह कह केही.....’ से उसका परिचय दिया है, वह प्रसंगानुकूल प्रतीत नहीं होता .

समग्रतः यह कृति भक्तों, साहित्यकारों और विचारवान शोधार्थियों के लिए अपरिहार्य प्रतीत होती है.

 

 

३५, ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, भोपाल १६

पुस्तक- तुलसीदास का चिंतन

लेखक- डा परशुराम शुक्ल विरही

प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, दिल्ली

मूल्य – एक सौ पचास रूपये

 

 

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