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सूखे पत्तों पर चलते हुए--शैलेन्द्र शरण

 

शैलेन्द्र की कविताएँ हमें अकेला कहीं नहीं छोड़ती – पंकज त्रिवेदी@पुस्तक : सूखे पत्तों पर चलते हुए
रचनाकार : शैलेन्द्र शरण
प्रकाशन : शिवना प्रकाशन, सीहोर, मो.7562405545
मूल्य : 150/-
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श्री शैलेन्द्र शरण को मैं उनकी कविताओं से जानता हूँ। बड़े शालीन और मितभाषी है। पिछले दिनों उनका एक कविता संग्रह – ‘सूखे पत्तों पर चलते हुए’ – मिला था। पुस्तक हाथ में लेते ही ऐसा महसूस हुआ कि वाकई यह एक सूखा पत्ता है, जो हल्की हरी झाँय वाला और ज्यादातर पीला, अध् सूखा सा... । किताब कैसी होनी चाहिए? उसके शीर्षक के अनुरुप चित्र, साजसज्जा, अक्षरांकन और महँगे पीले से पन्नों पर छपी छंदमुक्त कविताओं में भी लय का पुट, जिसे हम पढ़ नहीं सकते, गुनगुना सकते हैं, उसी में जी सकते हैं ज़िंदगी के कुछ पल और कुशलता यह कि प्रत्येक कविता से गुज़रते हुए आपके मस्तिष्क में एक चित्र उभर कर आता है। कविता के प्रत्येक शब्द के साथ आपके अंदर अनुराग सा महसूस होता है, यही तो है कविता की सफलता।

शैलेन्द्र खण्डवा में रहते हैं। कुछ वर्ष पहले मैं इंदौर से होते हुए खण्डवा के नज़दीकी हाइवे से गुजरता हुआ देख रहा था, खण्डवा को! प्राचीन संस्कृति के इतहास को संजोए बैठा हुआ शहर। तब मुझे सुप्रसिद्ध निबंधकार आदरणीय श्रीराम परिहार जी की याद आई और फोन लगाकर मिलने की उत्सुकता बताई थी। मगर वह किसी कार्यक्रम के संदर्भ में खण्डवा में उपस्थित नहीं थे और मेरी ईच्छा अधुरी रह गई।

बात ‘सूखे पत्तों पर चलते हुए’ की, मैंने देखा कि यहाँ कविताओं में वैचारिक स्तर पर कोई जल्दबाजी या हडबडी नहीं है। बड़ी कोमलता से, स्पष्ट और खुले विचार से धीरे धीरे कदम बढाते हुए कवि ने अपना कविकर्म किया है। ज्यादातर कविताओं में स्मृति की अंग-भंगिमा नज़र आती है। यह कवि समय की पड़ताल करने में माहिर है। अंतर्मन का सत्य, बेचैनियाँ, अंतरसंवाद करते हुए कवि ने सामाजिक वर्जनाओं,सामयिक घटनाएँ, राजनीतिक परिदृश्य,समरसता, व्यक्तित्व, विरासत, लोक संस्कार आदि को शिल्पगत संस्कार से कविता कह दी है, कही क्या,स्थापित ही कर दी है।

‘रंगमंच’ शीर्षक से चार कविताएँ हैं, उनमें से एक प्रस्तुत करता हूँ –
नाटक में मर जाना
मर जाना नहीं होता
दर्शकों के मस्तिष्क में
एहसास पैदा करना होता है
किन्तु उसने
यह एहसास मुझमें
इस कदर भर दिया
कि उस रात
कई बार मेरी मौत हुई।
*
दरअसल ‘आमुख’ में श्री अरुण सातले जी लिखते हैं; ‘अपनी भाषिक संरचना में सूक्तियों की तरह संग्रह की कई कविता है, बोलती है, आपसे कुछ कहती है। हम अपने समय को आत्मसात कर जीते हुए भी एक प्रकार से भय महसूस करते हुए क्यों जीते हैं? विचारपरक, सूक्ति की तरह लिखी गई कविताएँ, आज के इस दौर में आदमी के जेहन में चस्पा हो जाती है। उनकी लगभग सभी कविताओं में कवि वैषम्य मन:स्थितियों, वर्जनाओं में जीते हुए मनुष्य के भीतर मानुषभाव के बीजारोपन का भाव निर्मित करते हुए उसे मनुष्य होने का एहसास कराता है।’

बोलती कविता की प्रतीति देखिए –
जब तुम थीं
तो मैं किचिन में जाता
झट चाय बना लाता
एक मीठी, एक फीकी
दो कप थे हमारे अलग-अलग
पहचान के लिए
फीकी कौन सी और मीठी किसमें
मुझे पता होता
तुम मुझे बिल्कुल फीका छोड़ दोगी
तो मैं कतई
अलग-अलग दो कप न रखता ।
*
अपनी बात को कविता में पारदर्शिता से कहने की ईमानदारी है, इस कवि में! मिलनसार होने के कारण उनके रिश्तों में अलग महक हमारी नासिकाओं को प्रसन्नता से भर देती है। मगर ऐसे में इस संसार के विविध रंगों को वह जब स्पर्श करते हैं तो बहुत सारे रंग उनकी ऊंगलियों की नोंक से होते हुए रिश्तों की पहचान कराती कविताएँ भी देती है। टूटते रिश्तों की बात आहत कर जाती है।

‘खोने पर’ शीर्षक से दो लघु कविताएँ है, उनमें से एक –
उस दिन असहज स्थिति में
तुम मुझे छोड़ आए
मैंने ट्रेन देखना बंद कर दिया
ठीक हुआ
नदी किनारे,चाँदनी रात में
तुम हाथ छुडाकर नहीं गये
अन्यथा मैं
नदी से बैर ले लेता
और अमावस को भी
आसमान की तरफ न देखता ।
*
शैलेन्द्र शरण की कविताओं में वो सच है, जो प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को एक नई दिशा खोल देती है। आशा की किरण नज़र आती है, स्पष्टवादिता मुखर है और हृदय को छूने वाली कविताएँ हमारे मन में अंकित हो जाती है, जो कहीं न कहीं हमारे अकेलेपन को खंगालती हुई हमसे ही बातें करती है,हमें अकेला कहीं नहीं छोड़ती।

श्री शैलेन्द्र शरण को इस संग्रह के लिए बधाई।
पंकज त्रिवेदी
(सुरेन्द्रनगर – गुजरात)
23 अप्रैल 2023 

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— with Shailendra Sharan.

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